आस्थाएं आत्मघाती हैं श्री प्रशांत योगी का आध्यात्मिक आलेख पढ़ कर लगा कि समाज जिसे आस्था की प्रबल पाकृत शक्ति ईस्वर ने दी है उसका अपनी अज्ञानता के कारण मनुष्य ने भस्मासुर की तरह उपयोग कर न केवल अपने को बल्कि समूची मानवता को ही खतरे के निशान से ऊपर ले जाकर बैठा दिया है। विचार के उदगम का यदि वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो पहले परिकल्पना जन्मती है। जो अमूर्त होती है। इस परिकल्पना को जब सिद्दांत की जमीन पर रोपा जाता है तो यह विश्वास बनती है और जब इस विश्वास को प्रयोग की कसौटी पर परखा जाता है और उस पर खरी उतरती है तो यह आस्था में रूपांतरित होती है। मगर जब बिना प्रयोग में उतारे बिना आचरण में ढाले इसे मेकअप की तरह चेहरे पर चढ़ा लिया जाता है तो यह मुखौटा बन जाती है जहां आदमी का मौलिक व्यक्तित्व ही दब जाता है। आज सुविधाभोगगी लोगों ने आस्था को ब्यूटीपार्लर का उपभोक्ता पदार्थ बना लिया है,इसलिए ऐसी छद्म आस्थाएं निश्चित ही आत्मघाती होती हैं। योगीजी ने ऐसे छद्म आस्थाओं के खिलाफ ही हमें सतर्क किया है। एक अच्छे आलेख के लिए प्रशांत योगीजी साधुवाद के पात्र हैं।पंडित सुरेश नीरव

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