पंडित नीरव जी ने उल्लू की चर्चा की, मैंउसे विज्ञान के धरातल पर लाना चाहता हूं।
लक्ष्मी का वाहन उल्लू क्यों
विश्वमोहन तिवारी एयर वाइस मार्शल, से .नि .
हाथी के सिर वाले, लम्बोदर गणेश जी चूहे पर वास्तव में सवारी तो नहीं कर सकते, या लक्ष्मी देवी उल्लू जैसे छोटे पक्षी पर। जब मैंने इन प्रतीकों पर वैज्ञानिक सोच के साथ शोध किया तब मुझे सुखद आश्चर्य पर सुखद आश्चर्य हुए। पुराणों में वर्णित विभिन्न देवी देवताओं के अपने अपने निश्चित वाहन हैं, यथा लक्ष्मी का वाहन उल्लू, कार्तिकेय का मयूर, सरस्वती का हंस, गणेश जी का वाहन चूहा इत्यादि। यह विचित्र लगते हैं; अत: यह तो निश्चित है कि ये वाहन प्रतीक हैं, यथार्थ नहीं। मैंने इन पर जो लेख लिखे और व्याख्यान दिये वे बहुत लोकप्रिय रहे। उनके पौराणिक होने का लाभ यह है कि, उदाहरणार्थ, इस प्रश्न पर कि ‘लक्ष्मी का वाहन उल्लू क्यों ?’, पाठकों तथा श्रोताओं में जिज्ञासा एकदम जाग उठती है।
इन सारे वाहनों के वैज्ञानिक कारणों का विस्तृत वर्णन तो इस प्रपत्र में संभव नहीं, किन्तु अपनी अवधारणा को सिद्ध करने के लिये उदाहरण स्वरूप लक्ष्मी के वाहन उल्लू का संक्षिप्त वर्णन उचित होगा। यह उल्लू के लक्ष्मी जी के वाहन होने की संकल्पना कृषि युग की है। वैसे यह आज भी सत्य है कि किसान अनाज की खेती कर ‘धन’ पैदा करता है। किसान के दो प्रमुख शत्रु हैं कीड़े और चूहे। कीड़ों का सफाया तो सभी पक्षी करते रहते हैं और उन पर नियंत्रण रखते हैं, जो इसके लिये सर्वोत्तम तरीका है। किन्तु चूहों का शिकार बहुत कम पक्षी कर पाते हैं। एक तो इसलिये कि वे काले या भूरे रंग के होते हैं जिनक अँधेरे में दिखना सरल नहीं। साथ ही वे बहुत चपल, चौकस और चतुर होते हैं। इसलिये मुख्यतया बाज वंश के पक्षी और साँप इत्यादि इनके शिकार में कुछ हद तक सफल हो पाते हैं। दूसरे, चूहे अपनी सुरक्षा बढ़ाने के लिये रात्रि में फसलों पर, अनाज पर आक्रमण करते हैं और तब बाज तथा साँप आदि भी इनका शिकार नहीं कर सकते। एक मात्र उल्लू कुल के पक्षी ही रात्रि में इनका शिकार कर सकते हैं।
जो कार्य बाज जैसे सशक्त पक्षी नहीं कर सकते, उल्लू किस तरह करते हैं? सबसे पहले तो रात्रि के अंधकार में काले चूहों का शिकार करने के लिये आँखों का अधिक संवेदनशील होना आवश्यक है। सभी स्तनपायी प्राणियों तथा पक्षियों में उल्लू की आँखें उसके शरीर की तुलना में बहुत बड़ी हैं, वरन इतनी बड़ी हैं कि वह आँखों को अपने कोटर में घुमा भी नहीं सकता जैसा कि अन्य सभी पक्षी कर सकते हैं। अब न घुमा सकने वाली कमजोरी को दूर करने के लिये, अन्य पक्षियों के बरअक्स, वह अपनी गर्दन तेजी से तथा पूरे पीछे तक घुमा सकता है।
दूसरी योग्यता, पक्षी जाति के लिये और भी कठिन है। जब कोई भी पक्षी चूहे पर आक्रमण करते हैं, तब उनके उड़ान की फड़फड़ाहट को सुनकर चूहे चपलता से भाग कर छिप जाते हैं। इसलिये बाज भी चूहों का शिकार अपेक्षाकृत खुले स्थानों में कर सकते हैं ताकि वे भागते हुए चूहों को भी पकड़ सकें, यह मैने देखा है। किन्तु चूहे अधिकांशतया खुले स्थानों के बजाय लहलहाते खेतों या झाड़ियों में छिपकर अपना आहार खोजते हैं . ओर वह भी रात में। वहां यदि चूहे ने शिकारी पक्षी की फड़फड़ाहट सुन ली तो वे तुरन्त कहीं भी छिप जाते हैं। उल्लू की दूसरी अद्वितीय योग्यता है कि उसके उड़ते समय फड़फड़ाहट की आवाज नहीं आती। यह क्षमता उसके पंखों के अस्तरों के नरम रोमों की बनावट के कारण आती है।
उल्लू को तीसरी आवश्यकता होती है तेज उड़ान की क्षमता के साथ धीमी उड़ान की भी। यह तो हम विमानों के संसार में भी हमेशा देखते हैं कि तेज उड़ान वाले विमान की धीमी गति भी कम तेज उड़ने वाले विमान की धीमी गति से तेज होती है। तेज उड़ान की आवश्यकता तो उल्लू को अपने बचाव के लिये तथा ऊपर से एक बार चूहे को ‘देखने’ पर तेजी से चूहे तक पहुँचने के लिये होती है। तेज उड़ने के लिये चूहे की चोंच बहुत छोटी होती है, इतनी कि बस वह उससे चूहे को पकड़ तो सकता है किन्तु उसकी चीरफ़ाड़ नहीं कर सकता। चोंच छोटी होने के कारण उसका वजन कम हो जाता है। किसी पक्षी के वजन में चोंच तथा हड्डियों का वजन ही प्रमुख होता है। और झाड़ियों आदि के पास पहुंचकर धीमी उड़ान की आवश्यकता इसलिए होती है कि वह उस घिरे स्थान में चपल चूहे को बदलती दिशाओं में भागने के बावजूद पकड़ सके। यह योग्यता भी अपने विशेष आकार के परों के कारण उल्लू में है, बाज आदि में नहीं।
यदि चूहा अधिकांशतया लहलहाते खेतो में या झाड़ियों में छिपते हुए अपना कार्य करता है तब उड़ते हुए पक्षी द्वारा उसे देखना तो कठिन ही होगा। चूहे आपस में चूं चूं करते हुए एक दूसरे से सम्पर्क रखते हैं। क्या यह महीन तथा धीमी चूं चूं कोई पक्षी सुन सकता है? समझदार किसान उल्लू के बैठने के लिये खेतों में खम्भे गाड़ देते हैं। उअन पर बैठकर उल्लू न केवल सुन सकता है वरन सबसे अधिक संवेदनशीलता से सुन सकता है। चूहे की चूं चूं की प्रमुख ध्वनि–आवृत्ति 6000 - 8000 हर्ट्ज़ के आसपास होती है, और उल्लू के कानों की श्रवण शक्ति 6000 -8000 हर्ट्ज़ के आसपास अधिकतम संवेदनशील होती है! साथ ही इस ऊँची आवाज का लाभ उल्लू को यह भी मिलता है कि वह उस आवाज को सुनकर अधिक परिशुद्धता से उसकी दिशा का निर्धारण कर सकता है, क्योंकि आवाज़ जितनी ऊँची होगी उसकी दिशा उतनी ही परिशुद्धता से नापी जा सकती है। यह हुई उल्लू की चौथी अद्वितीयता।
उल्लू में एक और गुण है जो अद्वितीय इस अर्थ में है कि सभी पक्षियों की तुलना में, कुछ अपवादों के साथ, उसके पर सर्वाधिक गरम होते हैं। इस योग्यता का ज्ञान हमारे ऋषियों साधुओं को, जो हिमालय की गुफ़ाओं में रहते थे, था। वे अपनी बंडी (जैकैट) में इन परों को भरवाते थे, और अपनी चप्पलों में भी चिपकाते थे। चूँकि उसे शीत ऋतु की रातों में भी उड़ना पड़ता है, उसके अस्तर के रोएं उसे, (उड़ान के शीत गुणक के बावजूद) भयंकर शीत से बचाने में सक्षम है। इन गरम अस्तरों के बल पर वह शीतप्रधान देशों में भी आवास कर सकता है; और उल्लू भूमध्यरैखिक जलवायु से लेकर ध्रुवीय जलवायु तक में आवास करता है। यह उसकी पॉंचवी अद्वितीयता है।
उल्लू की छठवीं अद्वितीयता है उसकी छोटी चोँच। चोँच हड्डियों के समान भारी होती है। एक तो उसकी उड़न शक्ति का उसके वजन के साथ अनुपात बहुत बेहतर हो जाता है, जिससे वह तेजी से उड़ सकता है। एक दूसरा लाभ भी है। इस छोटी चोंच के कारण वह चूहे की चीरफ़ाड़ नहीं कर सकता; अत: उसे उसे चूहे को पकड़ने और मारने के बाद साबित निगलना पड़ता है। इसका लाभ यह है कि वह खलिहान को बिलकुल गंदा नहीं करता, अन्यथा किसान उसका स्वागत करने के स्थान पर उसे मार भगाते।
इस सब गुणों के बल पर इस पृथ्वी पर चूहों का सर्वाधिक सफल शिकार उल्लू ही करते हैं। और चूहे किसानों के अनाज का लगभग ३० % नुकसान कर सकते हैं। इसलिये उल्लू किसानों के अनाज में वृद्धि करते हैं, अर्थात वे उसके घर में लक्ष्मी लाते हैं, अर्थात लक्ष्मी का वाहन उल्लू है। इसकी उपरोक्त छै योग्यताओं के अतिरिक्त, जो कि वैज्ञानिक विश्लेषण से समझ में आई हैं, लक्ष्मी का एक सामाजिक गुण भी है जिसके फलस्वरूप उल्लू लक्ष्मी का वाहन बन सका है। किसी व्यक्ति के पास कब अचानक लक्ष्मी आ जाएगी और कब चली जाएगी, कोई नहीं जानता – इन्फ़र्मेशन टैक्नालाजी वाले प्रेम जी अचानक कुछ महीने भारत के सर्वाधिक धनवान व्यक्ति रहे, और अचानक ‘साफ्टवेअर’ उद्योग ढीला पड़ने के कारण वे नीचे गिर गये। चूँकि उल्लू के उड़ने की आहट भी नहीं आती, अतएव लक्ष्मी उस पर सवार होकर कब आ जाएंगी या चली जाएंगी, पता नहीं चलता। यह ऋषियों की तीक्ष्ण अवलोकन शक्ति दर्शाता है।
यद्यपि हमारे ऋषियों के पास वैज्ञानिक उपकरण नहीं थे, तथापि उनकी अवलोकन दृष्टि, विश्लेषण करने और संश्लेषण करने की शक्ति तीव्र थी। उल्लू को श्री लक्ष्मी का, मयूर को कार्तिकेय का, नंदी को शंकर जी का, चूहे को गणेश जी आदि का वाहन बनाना यह सब हमारे ऋषियों की तीक्ष्ण अवलोकन दृष्टि, घटनाओं को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि और सामाजिक–हित की भावना दर्शाता है।
आमतौर पर उल्लू को लोग निशाचर मानते हैं, उसकी आवाज को अपशकुन मानते हैं, उसे खंडहर बनाने वाला मानते हैं। इसलिये आम लोगों के मन में उल्लू के प्रति सहानुभूति तथा प्रेम न होकर घृणा ही रहती है। इस दुर्भावना को ठीक करने के लिये भी उल्लू को लक्ष्मी का वाहन बनाया गया। और यह उदाहरण कोई एक अकेला उदाहरण नहीं है। सरस्वती का वाहन हंस, कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणेश जी का वाहन चूहा भी वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत समाजोपयोगी संकल्पनाएं हैं। इन अवधारणाओं का प्रचार अत्यंत सीमित होता यदि इन्हें पुराणों में रखकर धार्मिक रूप न दिया होता। क्योंकि आम आदमी में वैज्ञानिक समझ का पैदा करना बहुत कठिन कार्य है, इसलिए इस देश में उल्लू, मयूर, हंस, सारस, चकवा, नीलकंठ, तोता, सुपर्ण (गरूड़), मेंढक, गिद्ध आदि को, और भी वृक्षों को, जंगलों को इस तरह धार्मिक उपाख्यानों से जोड़कर, उनकी रक्षा अर्थात समाज और पर्यावरण की रक्षा हजारों वर्षों से की गई है। किन्तु अब अंग्रेजी की शिक्षा ने, विशेषकर अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा ने हमारी आज की पीढ़ी को इस सब ज्ञान से काट दिया है। आज हम भी पाश्चात्य संसार की तरह प्रकृति का शोषण करने में लग गये हैं। तथा पर्यावरण एवं प्रकृति का संरक्षण जो हमारी संस्कृति में रचा बसा था उसे हम भूल गये हैं। यह संरक्षण की भावना, अब नुकसान करने के बाद कुछ पाश्चात्य प्रकृति–प्रेमियों द्वारा वापिस लाई जा रही है। एक बात को स्पष्ट करना आवश्यक है कि इन प्रतीकों का आध्यात्मिक अर्थ भी होता है।
निष्कर्ष यह है कि हमारी पुरानी संस्कृति में वैज्ञानिक सोच तथा समझ है, उसके तहत हम विज्ञान पढ़ते हुए आधुनिक बनकर ‘पोषणीय उन्नति’ (सस्टेनैबल प्रोग्रैस) कर सकते हैं। आवश्यकता है विज्ञान के प्रभावी संचार की जिस के लिये पुराणों के उपाख्यान, वैज्ञानिक व्याख्या के साथ, उत्तम दिशा दे सकते हैं। और इस तरह हम मैकाले की शिक्षा नीति (फरवरी, 1835) – “ब्रिटिश शासन का महत उद्देश्य भारत में यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान का प्रचार–प्रसार करना होना चाहिये।” के द्वारा व्यवहार में भ्रष्ट की गई अपनी उदात्त संस्कृति की पुनर्स्थापना कर सकते हैं। वे विज्ञान का प्रसार तो कम ही कर पाए यद्यपि अंग्रेजी का प्रचार–प्रसार करने में उन्होंने आशातीत सफलता पाई। हमारा उद्देश्य पाश्चात्यों की नकल करना छोड़कर, भारतीय भाषाओं में ही प्रौविज्ञान का प्रचार–प्रसार करना होना चाहिये और तभी वह अधिक सफल भी होगा। तभी हम प्रौविज्ञान के क्षेत्र में, वास्तव में, अपनी अनुसन्धान शक्ति से, विश्व के अग्रणी देशों में समादृत नाम स्थापित कर सकेंगे। तब हम और भी अधिक गर्व से कह सकेंगे कि हम हिन्दू हैं। वैसे यह भी आज के दिनों में कम गर्व की बात नहीं कि विश्व में केवल हिन्दू धर्म है जो पूर्णतः न सही किन्तु सर्वाधिक विज्ञान–संगत है।
No comments:
Post a Comment