


जब मोबाईल पर बात का सिलसिला बनता है तो वह महज बात ही नहीं बल्कि एक मुलाकात का जरिया भी बनता है। अपनी-अपनी अंतरानुभूति अपनी अभिव्यक्ति द्वारा एक सन्देश को परिपुष्ठ करती है और समयगत बीती हुई /खोई हुई यादगारों को तरोताजा करती हैं। पता नहीं कौन, कहाँ और कब मिल जाए। हो सकता है वह अपना कोई चिरमीत ही हो, अपनी सान्निध्यता का बेकल पुजारी हो , गुरुजन हो, अपना कोई परिजन हो। इस वायुमंडल में और कोई नहीं बल्कि अपनी अंतरात्मा के निःशब्द ढ़ूंढ़ते -ढ़ूंढ़ते उस तक पहुँच जाते हैं। वे खिलखिलाकर हँसते हैं , ऐसा लगता है कि शब्द शब्द से चिपटकर/आलिंगन करके/ बांहों में बांह डालकर मिल रहे हैं। वे एक दूसरे को छोड़ नहीं रहे हैं क्योंकि उनके स्नेह की अनुभूति की टीस अन्तः तक पैठ बना चुकी है। मुझे तो ऐसा लगता है कि ये केवल शब्दों के आदान-प्रदान की ही सान्निध्यता नहीं बल्कि ये दो या दो से अधिक आत्माओं का मिलन है जो हमें सदनीयति से एक सच्चे स्नेह के आनंद को पोसती है। यही सच्चिदानंद की अनुभूति है। यही एक दर्शन है। यही यथार्थ है। क्योंकि उनका मिलन ही इतना संलिप्त हो गया है कि वे अपने आपे को खो चुके हैं। यह एकीकरण ही सच्ची सान्निध्यता है। आज ऐसे यकायक यथार्थ दर्शन के प्रणेता श्री प्रशांत योगीजी जो सुदूर धर्मशाला में अपनी धूनी जमाए हुए हैं का फोन आया। वे बोले कि मैं योगी बोल रहा हूँ। हम दोनों प्रणाम एवं दीवाली की शुभ एवं मंगल कामनाओं से लेकर शब्दों के साथ वायुमंडल में टहलते हूँ अपने दूर- दराज गाँव जहाँ जाए हुए बरसों गुजर गयीं, पहुँच गए। फिर तो हम दोनों खेत की मेंड़ों मुली खाते हुए , गन्ने चूसते हुए अपनी भाषा में यानी ब्रजभाषा में बतियाने लगे। भैया! काह करें हमें तौ गाँव गए बौहत दिन है गए। हम तौ अपनी सबरी भाषा भूल गए। हंस भैया! आज जो तुमने दिवारी की सबनुकुं बौहत-बौहत मंगल कामनाएँ दई है वासूं अपने गाँव की भाषा की याद आ गयी। वाकूं पढ़िकै बडौ आनंद आयौ। मोय तौ ऐसौ लगि रह्यो कि मैं तौ अपने गाँव में अपने भैयन के बीच में पौहोच गयौ। भैया हंस! तुमने तौ बौहत अच्छो लिख्यो है। इन बातों में कितनी सारगर्भिता, सान्निध्यता, आत्मीयता और यथार्थता है। यही तो यथार्थ दर्शन का प्रतिपालक है। यही वह सात्विक दिग्दर्शन है जो शाश्वत है, सनातन है और सतत है। यह बिल्कुल विकार एवं विषाद रहित है । यदि यह अपने मुखारुविंदु से अपने अंतस तक पहुंचेगा तो उस परमपिता सच्चिदानंद के दर्शन अवश्य होंगे। सबको इन्सान ही द्रष्टिगोचर होंगे। शुभ दिवाली । नमन।
इसी फलक यानी अंतरनिहित द्रष्टि/सोच जो मनुष्यता के नाम पर दबी पड़ी है या जिसको अपन का बोध नहीं है , को अपनी व्यंगात्मक/काव्यात्मक /गद्यात्मक/ अध्यात्मिक शैली में सात्विकता को छूती हुई सार्थकता से अनवरतरूप से बात कह रहे हैं। उनका अतुलनीय शब्दबिंदास ह्रदय के मर्म को अवश्य छूता है। अब कौन कितना उसमें से अपनी झोली में डालता है। यह उसी अध्यनरत/श्रोता पर निर्भर करता है। जो जैसा चाहेगा ले लेगा। पालागन। जय लोक मंगल।
भगवान सिंह हंस
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