हास्य-व्यंग्य-
मोहल्ला मास्टरों का..
पंडित सुरेश नीरव
मेरी जिंदगी में आजकल परिस्थितियां कुछ इस तरह असहयोग कर रही हैं गोया वे परिस्थितियां न होकर विरोधी पार्टियां हों। सबने मिलकर मेरा बैंड बजा रखा है। फिलवक्त मैं हाईक्वालिटी की परेशानियों से घिरा हुआ हूं। चूंकि मास्टर हूं इसलिए इस बात की तो मुझे तसल्ली है कि भले ही चैन से जी न पाऊं मगर मरूंगा पूरी शान से। क्योंकि औपचारिकतावश ही सही मेरे छात्र मेरे सम्मान में दो मिनट का मौन रखकर,मेरी शोकसभा को जरूर शानदार और यादगार बना देंगे। इस शानदार शोकसभा के सपनों के सहारे ही आजकल जिंदगी काट रहा हूं। छठे वेतन आयोग में अध्यापकों के वेतनमान बढ़ाए जाने की मेरी मास्टरी उपलब्धि को मेरे सगे-संबंधी ऐसे अचरज से देख रहे हैं जैसे किसी ने उनको किसी किन्नर के यहां पुत्र जन्म की खबर सुना दी हो। हां,कुछ अल्पमती मित्रों ने जरूर इस खबर को सीरियसली दिल पर ले लिया है और जैसे नेताजी सुभाषचंद्र बोस के दिल्ली चलो ऐलान का सम्मान करते हुए देशभर में बिखरे देशप्रेमी दिल्ली पहुंच गए थे, कुछ-कुछ उसी डिजायन के उत्साह से भरे मेरे रिश्तेदारों के जत्थे भी सपरिवार,इस खुशी में शरीक होने,मेरे घर चलते-ही-चले आ रहे हैं। इत्तफाक से मेरा घर दिल्ली की पूंछ यानी कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अंतर्गत आनेवाले भूखंड जिसे कि आम भाषा में ग़ज़ियाबाद कहते हैं के दक्षिणी अक्षांश पर समुद्रतल से एक संतोषजनक ऊंचाई पर स्थित है जोकि दो तरफ से सीबर की खुली जलधाराओं और तीसरी तरफ लैंडफिलिंग के मनोहारी दृश्यों से लैस एक अति गंधवान कर्कट पर्वत से घिरा हुआ है। जहां पक्षीविहार से निष्कासित गिद्ध,चील और कौओं के प्रतिनिधिमंडल बंग्लादेशी शरणार्थियों की भांति मुक्तभाव से निवास करते हैं। इन पवित्र परिंदों के समाज में हमारी कालोनी को वैसे ही वीआईपी एरिया माना जाता है कि जैसे दिल्लीवासियों के लिए चाणक्यपुरी। मुझे यह सोचकर बड़ी राहत मिलती है कि आदमियों में न सही गिद्ध और कौओं के वीआईपी एरिया में रहने का तो मुझे सौभाग्य मिला। यहां मौसम की गुल्लक से उछलकर कभी चवन्नीभर खुशबू भी यदि टपक पड़ती है तो ऐसा आभास होता है जैसे मुद्दत से सूखे पड़े सरकारी नल की टोंटी में से पानी की दुर्बल धार निकल पड़ी हो। वैसे भी यहां नल में पानी आने की घटना को गणेशजी के दूध पीने के हैरतअंगेज कारनामे के समकक्ष ही माना जाता है।हमारी कालोनी की सड़कें हड़प्पाकालीन शिल्प में रची गईं हैं। जो चलने से ज्यादा बच्चों के खेलने और बूढ़ों के धूप सेंकने के लिए पार्क की तरह ज्यादा इस्तेमाल की जाती हैं। इधर दिल्ली में पशुमेला प्रदर्शनी का चलन और प्रचलन दोनों खत्म–से हो गये हैं क्योंकि उसकी जगह दिल्ली में राजनैतिक पार्टियों के आए दिन होनेवाले धरने-प्रदर्शन के सर्कस ने ले ली है जिसको जनता ज्यादा पसंद करने लगी है। लेकिन पशुमेले का लोकउत्सव जड़-मूल से ही लुप्त न हो जाए,इसलिए हमारी कालोनी के बाशिंदों ने सड़कों पर गाय,भैंस,बकरी और कुत्तों की बेरोक-टोक आवाजाही का अघोषित प्रावधान कर,,इस लोकउत्सव को प्रोत्साहित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस सब के बावजूद हमारी कालोनी मैं अध्यापक ही ज्यादा क्यों रहते हैं,इस का कारण अभी तक किसी के समझ में नहीं आया,जो यहां रह रहे हैं खुद उनको भी नहीं। वैसे आवास-विकास परिषद ने तो इस बस्ती को जनता कालोनी का नाम दिया है। शायद अध्यापक अपने को ही जनता समझते हों। या फिर हो सकता है कि अध्यापकों का विकसित सौंदर्य-बोध उन्हें इस लैंडफिल हिलस्टेशन की ओर ज्यादा खींचता हो और वे यहां ऐसे ही खिंचे चले आते हों-जैसे चुंबक की तरफ लोहे का बुरादा खिंचा चला आता है। प्राधिकरणवालों को जब यह भनक लगी कि इस कालोनी में अध्यापक ज्यादा रहते हैं तो उन्होंने शिक्षकों के प्रति अपना अतिरिक्त सरकारी सम्मान जताते हुए यहां का लाइट कनेक्शन काटकर यहीं कि बिजली सप्लाई झुग्गी-झौंपड़ियों की तरफ मोड़ दी। अपने इस कृत्य को शास्त्रोचित बताते हुए वह दलील देते हैं कि उपनिषदों में लिखा है कि (उन्हें मालुम है कि आजकल ऐसी फालतू किताबें कोई नहीं पढ़ता,इसलिए कोई उनकी बात काट भी नहीं पाएगा) गुरू वह है,जो हमें अंधेरे से उजाले की ओर ले जाए। तमसोमाज्योतिर्गमय...। अब जब अंधेरा ही नहीं रहेगा तो गुरु किसको,कहां ले जाएगा। अंधेरे के अभाव में तो उस बेचारे के सारे रचनात्मक कार्यक्रम ही रुक जाएंगे। और समाज में उनकी उपयोगिता खत्म हो जाएगी,सो अलग। अगर अंधेरे का अकाल हो जाएगा तो गुरु नस्ल के जीव तो समाज से ऐसे लुप्त हो जाएंगे जैसे कि आज के जंगलों से डायनासौर। प्रशासन ऐसा गुरुहन्ता काम करके पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता है। क्योंकि इसमें ट्रिपल मर्डर का केस होता है। भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि एक अदद गुरु में ब्रह्मा,विष्णु और महेश नामक तीन-तीन देवता बसेरा करते हैं। एक गुरु का खात्मा यानी तीन देवताओं की छुट्टी। गुरुओं के सर्वांगीण और बहुमुखी विकास के मद्देनजर ही प्रशासन ने यहां से विद्युत व्यवस्था का समूल उन्मूलन कर एक मनोकूल रचनात्मक पर्यावरण हमारी कालोनी को मुहैया कराया है। वैसे भी गुरु वसिष्ठ से लेकर द्रोणाचार्य-जैसे धांसू आचार्य भी बिना बिजलीवाले आश्रमों में रहकर ही शिष्यों के जीवन से अंधकार ऐसे मिटा दिया करते थे जैसे आज का मलेरिया महकमा मच्छरों को मिटा देता है। अंधकार में ज्ञान का दीप जलाने का अपना एक अलग मज़ा है। और जिसे इस मजे का चस्का एक बार लग जाए तो फिर वह जिंदगीभर नहीं छूटता है। आज जब अध्यापकों के वेतन भरपेट बढ़ गए हैं तब उन्हें कम-से-कम अंधेरा भगाने के अभियान में तो लगाना ही पड़ेगा। वैसे प्रशासन को इस बात की भी भनक लग चुकी है कि कुछ अध्यापक अंधेरा हटाओ कार्यक्रम को उसी निष्ठा से कर रहे हैं-जैसे कि वे जन-गणना,राशनकार्ड और चुनाव पहचान पत्र या अन्य सरकारी कार्यक्रमों को करते आए हैं। कुछ अध्यापकों ने तो अंधेरा हटाओ अभियान में भी घोटाला शुरू कर दिया है। उन्होंने ट्यूशन पढ़ने आनेवाले छात्रों से घर से बैटरीचलित लालटेन लाने का फरमान जारी कर एक लज्जाजनक और जघन्य कृत्य करने का सिलसिला शुरू कर रखा है। अब देखिए न कि गुरु तो हमेशा शिष्य को अंधेरे से उजाले की ओर ले जाता रहा है। हमारी यही परंपरा रही है लेकिन आज के कलियुगी मास्टर शिष्य से लालटेन मंगाकर खुद अंधेरे से उजाले में जाकर उल्टी गंगा बहा रहे हैं। क्या होगा इस देश का। क्या होगा समाज का।सरकार चिंतित है,इन घयनाओं से।
इतनी बातें मैंने इसलिए आपके सामने रखी हैं ताकि आप हमारी कालोनी में अंधेरा देखकर कहीं गलती से इसे प्रशासन की अक्षमता न समझ बैठें। यह तो शासन द्वारा विशेषरूप से बनाई गई अध्यापक हितकारी व्यवस्था है,जो काफी चिंतन के बाद हमारी कालोनी को मुहैया कराई गई है। वैसे इस व्यवस्था से यहां रहनेवालों को एक फायदा यह जरूर हुआ है कि रेडियो और टीवी-जैसे समय काटनहार संयंत्रों का उपयोग, प्रशासन में ईमानदारी की तरह ही, हमारी कालोनी में छुटपुटरुप से ही कहीं-कहीं बचा रह गया है। मजबूरी में समय काटने के लिए छात्र-छात्राएं पढ़ने के अलावा और कोई मनोरंजन नहीं करते हैं। अंधेरे में पढ़ने से मनोरंजन तो होता ही है,थोड़ा बहुत ज्ञानरंजन भी हो जाता है। छात्र-छात्राएं इतना मन लगाकर पढ़ते हैं कि वे क्या पढ़ रहे हैं,इसका उन्हें खुद भी ध्यान नहीं रहता है। बेचारे पढ़ते-पढ़ते थक कर सो जाते हैं। सुबह यदि किताब सीने पर रखे, सोते हुए, रंगे हाथों, फेमिली के उन सदस्यों,जिन्हें इंडिया में आजकल मम्मी-डैडी के नाम से बुलाने का रिवाज़ है,ये नौनिहाल बरामद होते हैं और ये पुस्तक हाथ उनके हाथ लग जाती है तो वे जिज्ञासावश पन्ने पलटकर उसे पढ़ लेते हैं। फलस्वरूप बच्चों को डांट तो पड़ती है साथ ही तब ही बच्चों को इस बात का ज्ञान होता कि रात में वह जिस पुस्तक को इतने ध्यान से पढ़ रहे थे,वह विद्यालय के पाठ्यक्रम से बाहर की कोई चीज़ थी। वैसे भी ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तकों को पढ़ना कोई बच्चों का खेल नहीं है। ये वे पुस्तकें हैं जो पाठक के वयस्क होने की बाट जोहती रहती हैं,कि कब मेरा बांचू वयस्क हो और कब वो मुझे सीने से लगाकर,रातभर बांचे। पढ़ने की आदत होती भी कुछ ऐसी ही है। पढ़नेवाले के लिए किताब कुत्ते के मुंह में हड्डी है। हड्डी कैसी भी हो,कुत्ता उसे कहां छोड़ता है। पढ़ाकू भी किताब को पढ़-पढ़कर उसके चीथड़े उड़ा देता है। ऐसा पढ़ैया अपने व्यसन के कारण कोर्स की किताबें भी खूब पढ़ डालता है। हर ऐब का नतीजा तो भुगतना ही पड़ता है। हमारी कालोनी के छात्र-छात्राएं भी इसके अपवाद नहीं हैं। इसलिए यहां के अधिकांश छात्र-छाक्षाएं डिस्टिंक्शनयाफ्ता और मेरिटशुदा हुए बैठे हैं। सभी एक से बढ़कर एक हैं। अब्बल दर्जे के नंबरपाऊ। रिजल्ट बनाऊ। नतीजा यह है कि शहर में हमारी कालोनी शिक्षा के मामले में तक्षशिला और नालंदा की टू-इन-वन लोकल ब्रांच का दर्जा हासिल कर चुकी है। एक सर्वे कंपनी ने खुलासा किया है कि देशभर के नौजवानों की आजकल दो ही महत्वाकांक्षाएं रह गई हैं-पहली इस कालोनी के माल्टरों से ट्यूशन पढ़ना और दूसरी अमेरिका का वीजा प्राप्त करना। मेरी खोपड़ी चूंकि चिकन-खल्वाट है,इसलिए कालोनी का विश्व-समाज मुझे तक्षशिला-नालंदा के चाणक्य के हैप्पी संबोधन से पुकार कर मुझे खुशी का चुइंगम थमाता रहता है। जिसकी कि मैं भैंस की मुद्रा में चौबीस घंटे जुगाली करता रहता हूं। तब भी जब कि मैं ट्यूशन पढ़ा रहा होता हूं।
आजकल एक दर्जन छापामार महमानों ने मेरे घर के भूगोल पर वैसे ही कब्जा कर रखा है-जैसे कि तिब्बत पर चीन ने। मेरा घर धर्मशाला हो गया है। धर्मशाला....याद आया कि धर्मशाला में तो दलाईलामा भी रहते हैं। तो लीजिए मैं घर बैठे-बैठाए आजकल दलाईलामा और चाणक्य का टू-इन-वन हो गया हूं। दोनों ही महान हैं। और दोनों की हेयर स्टाइल भी मेरे जैसी ही है। इत्थफाक से मेरी भी उन-जैसी हीं है। सुना है लोग मेहमाननवाजी में गंजे हो जाते हैं। मैं तो पहले से ही गंजा हूं। मेहमानों को करने के लिए अब क्या रह गया। मेरा तो वो कुछ नहीं बिगाड़ सकते। क्योंकि बिगाड़ के उच्चतम बिंदु पर तो मैं पहले से ही टहल रहा हूं। अब तो जो भी बिगाड़ होगा वो मेहमानों का ही होगा। वैसे भी अध्यापकों के मोहल्ले में रहना कोई साधारण काम है। प्रभु की कृपा रही तो जल्दी ही ये मेहमान अपने घर चल बसेंगे। मैं भी उनके घर सिधारने की प्रतीक्षा कर रहा हूं। क्योंकि गंदगी के इस होनोलुलू में रहना हम जांबाजों का ही हौसला है..हर किसी के बूते की बात नहीं।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद-201001
मो.9810243966


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