भई कमाल का शेर है नीरव जी..
"आग है पानी के घर में आंसुओं की शक्ल में
इसकी मीठी आंच ने पल-पल जलाया है मुझे"
आपने अकथनीय कह दिया है!! जब बुझाने वाले के घर में आग लगा जाए तब कौन बुझाए और कौन कहता कि इसे बुझाओ मुझे पल पल जलने दो यही तो जिन्दगी है। बस कमाल कर दिया। धन्यवाद॥
एक कविता मेरी :
जवाकुसुम
याद है,
जब तुम मिली थीं,
जवाकुसुम की लचीली टहनी पर
एक सुर्ख सर
'मरमर' पंछी बैठा आकर
और टहनी झूम झूम गई थी,
साथ – साथ पंछी भी।
वह फुदक कर
जवाकुसुम के ठीक ऊपर
भारमुक्त सा
चित्रलिखित सा स्थिर भी था
सम्मोहित सा उङ भी रहा था
जवाकुसुम का रक्त वर्ण फूल
पराग केसर निकले हुए
पराग भरे मकरंद भरे
भाले सी लंबी चोंच
उसने फूल में डाली
फूल में सिहरन दौङी
वह भारमुक्त
पराग लेता रहा।
उसी समय सूर्यास्त हो रहा था,
सारा आकाश जवाकुसुम सा
लाल हो गया था।
उसनेबैठे ही बैठे
पंख फङफङाए
टहनी थोङी सी ऊपर उठी
बिलकुल थोङी
उतनी ही जितनी कि
मेरे बैठे बैठे हाथ का टेका बदलने से
तुम अपने आप मेरे साथ झुक गई थीं ।
`फ़िर सुर्ख सर मरमर फ़ुर्र से उड़ गया
टहनी हिलती रही, और तुमने कहा था
सूर्यास्त कितना सुन्दर है !
याद है !
. . . . .विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल, (से.नि.)
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