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Friday, December 24, 2010

धर्मशाला में त्रिवेणी
















यथार्थ में धर्मशाला में शब्दों की सारस्वत त्रिवेणी शाश्वत और सनातन बह रही है। वह इस वासंती बेला में जनमानुष को सराबोर कर रही है, आनंदित कर रही है और अपनी पीयुषी धारा से सबको नहलाकर पवित्र करके अपना पारंपरिक दायित्व निभा रही है। यह शब्दमयी धारा गंगा, सरयू और कावेरी से भी बढ़कर है। यह एक ऐसी धारा है जो जन्म-जन्म के कष्ट मिटा देती है। इन शब्दों में तुम गोता लगाकर तो देखो। शब्द से बड़ी कोई गंगा नहीं है। परन्तु शब्दों का वंदन-नमन मन से हो , दिल से हो और स्नेह एवं श्रद्धा से हो तभी आपको यथार्थ में अनमोल प्यार मिलेगा और उस प्यार का योगी बनकर प्रशांत अमरत्व को प्राप्त होगा। फिर उस नीरवता में प्रशांत के आँचल पर मधु वर्षा क्यों नहीं होगी। वही मनुष्य की जीवंत सौगात है और वही उसकी सुखद एवं सार्थक उपलब्धि है। यही यथार्थ दर्शन है । जीवन यापन करना बहुत बड़ी बात नहीं है परन्तु जीवन को जीना बहुत बड़ी बात है जो हर किसी को दुर्लभ है। लेकिन कुछ ऐसे प्रेमी होते हैं जो उस भभूत को आपने में आत्मसात कर लेते हैं -दैहिकरूप से नहीं बल्कि सारस्वत शाब्दिक स्नेह से। यही यथार्थ प्रेम है, यही चिंतन है, यही मनन है और यही सृजन है। ऐसे ही यथार्थ स्नेही एवं शब्दपंडित पंडित सुरेश नीरव , डा० मधु चतुर्वेदी और प्रशांत योगी धर्म की शाला (धर्मशाला) में आपने शब्दों की इस वासंती बेला में सरस एवं आनंदमयी रसधार काव्यांजलि के रूप में बहा रहे हैं।
नीरव जिंदगी का अहोभाग्य, जो दरख़्त से बड़ा हुआ ।
हुई स्नेह की जो वारिष , ये जख्मे-दिल न खड़ा हुआ । ।
धर्मशाला की ये दास्तान, मधु प्रशांत भाई नीरव ।
चिरस्मृति वासंतीगंध में, सौरभता से पगा हुआ । ।
हम तौ भैया ब्लॉग पै ही देखि कें खुश है रहे हैं , वां होंते तौ कितनेन खुश होंते। यथार्थ प्रेम जौ ठहरौ।
मैं आपकी सुखद एवं सफल यात्रा की मंगलकामना करता हूँ। नमन।
भगवान सिंह हंस

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