मित्रों को सहाकारिता लेख उपयोगीलग रहा है, यह भाव मुझे शक्ति देता है, मेरा उत्साह बढ़ाता है। मित्रों का बहुत् धन्यवाद । अब अंतिम दो किश्तें एक साथ ही दे रहा हूं।
5. सहकारिता की दृष्टि मानवीय हो सकती है, न तो यह आवश्यक रूप से पूँजीवादी है और न साम्यवादी। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, यदि इसमें सहकारी संस्था का प्रमुख ध्येय 'लाभ कमाना ' नहीं है। दूसरे यह केवल मजदूरों या किसी एक वर्ग का ही हित नहीं देखती, और न उनके द्वारा राज्य संचालन की माँग करती है। पूँजीवाद में पैसे की गुलामी है, इसमें शक्ति का सदुपयोग (!) धन बनाने के लिये किया किया जाता है, जो अनंत और स्वीकार्य भ्रष्टाचार को जन्म देता है और जनतंत्र को नपुंसक बनाता है। और साम्यवाद में वैचारिक तथा संकेन्द्रित सत्ता की गुलामी है और इनका काडर- माफ़िया नागरिकों पर हावी रहता है। और दोनों ही दर्शन भोगवादी हैं। देखा जाए तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही सच्चे अर्थों में मानववादी नहीं हैं। सहकारिता तो, पूँजीपति हों या मजदूर हों, सदस्यों सहित सभी समाज का हित देखती है। इसमें क्या आश्चर्य कि सन २००२ में संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्विशेष सभा में यह स्वीकारा गया कि सहकारिता आर्थिक समृद्धि तथा समाजिक न्याय एवं विकास में मह्त्वपूर्ण योगदान देती है, और उऩ्होंने विश्व के देशों से अनुरोध किया कि वे इस सहकारिता के द्वारा समाज की आर्थिक, सामाजिक उन्नति करें। इसके महत्व को देखते हुए सं. रा. संघ ने वर्ष २०१२ को सहकारिता का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है।
यदि हम और भी विशाल परिप्रेक्ष्य में देखें तब जनतंत्र भी एक प्रकार का सहकारी संगठन है। किन्तु हमारा जनतंत्र वांछनीय रूप से सफ़ल नहीं कहा जा सकता क्योंकि जनता तथा शासकों के बीच भाषा भेद के कारण तथा अशिक्षा के कारण वांछनीय संचार नहीं है, विचारों का आदान प्रदान नहीं है, तब जनतंत्र के स्थान पर भ्रष्ट तन्त्र ही होगा। इसलिये राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विकास हेतु नागरिकों द्वारा शासन में प्रभावी सहयोग के लिये उनमें आपस में संचार होना अनिवार्य है। इसे सहकारिता द्वारा अधिक प्रभावी ढ़ंग से किया जा सकता है। देश की समस्या और समाधानों पर विचार करने के लिये विशेष सहकारी समितियों की स्थापना की जा सकती है। इन समितियों का उद्देश्य समाज हित, देशहित या मानवहित होना चाहिये नकि, उदाहरणार्थ, यूनियन के समान एक विशेष वर्ग का हित।
सहकारिता का कार्य क्षेत्र बढ़ रहा है। ज्ञान की खोज में भी सहकारिता का प्रभावी उपयोग हो सकता है; यह निश्चित ही व्यावसायिक कार्य नहीं है। जब किसी अवधारणा के विषय में अनेक भिन्न मान्यताएं व्याप्त हों जो एक दूसरे से मेल नहीं खातीं, तब विभिन्न विचारक यदि सहकारिता के तहत 'वादे वादे जायते तत्वबोध:' के द्वारा एक, यदि सर्वमान्य नहीं तो, बहुमत मान्य 'समझ' या परिभाषा निष्कर्षरूप में स्वीकारें तब बहुत सारे भ्रम दूर किये जा सकते हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं। मेरी समझ में अधिकांश भारतीयों के मन में एक प्रश्न या संशय बना रहता है - 'धर्म निरपेक्षता का क्या अर्थ है? क्या 'धर्म निर्पेक्षता 'सैक्युलर' शब्द का सही अर्थ है ? उसका सही अर्थ स्थापित करने के बाद बहुत सम्भव है कि सुधार करने के लिये न्यायालय की शरण जाना पड़े, जिसमें धन की आवश्यकता निश्चित ही होगी। इस सहकारी समिति में आर्थिक लाभ के स्थान पर व्यय ही होगा। अत: इसका हल निकालने के लिये देशप्रेमी विद्वानों तथा विशेषज्ञों की सहकारी समिति की आवश्यकता मुझे दिखती है। वे अन्य विशेषज्ञों और विद्वानों की सलाह भी ले सकते हैं। किसी एक के बूते यह समस्या नहीं स्पष्ट होने वाली और न एक व्यक्ति उसके निर्णय पर कार्य कर सकता है, क्योंकि वह बहुत खर्चीला और श्रमसाध्य कार्य होगा। मुझे लगता है कि इसी कारण से यह विवादित विषय उलझा पड़ा है। अब और विलम्ब नहीं होना चाहिये। इसी तरह जनतंत्र में अल्पसंख्यकों के, पिछड़े वर्ग के अधिकार, शिक्षा में भाषा का चुनाव आदि अवधारणाओं पर भी वाद विवाद होना आवश्यक है कि तत्वबोध हो सके और हम जनतंत्र के विकास के लिये सही मार्ग अपना सकें।
6. जब से मनुष्य का आविर्भाव हुआ है सहयोग और सहकारिताके बल पर ही उसने अधिक शक्तिशाली खूंख्वार जानवरों से अपनी रक्षा की है, वरन अब उनकी रक्षा कर रहा है। हमारा जीवन सहकारी सिद्धान्तों पर ही जीवित है और विकास कर रहा है। हमें आनुवंशिकी में प्राप्त सहकार के विकास करने के लिये मानवीय संस्कृति' और शासकीय दण्ड आवश्यक हैं। सुसंस्कृत होने की क्षमता भी हमें प्रकृति ने दी है, और दण्ड से भय खाने की भी। इससे सामाजिक समृद्धि तथा सुख बढ़ता है। इतिहास साक्षी है कि जब भी कुछ दलों ने सहकारिता छोड़कर, स्वार्थी रास्ता अपनाया है, युद्ध हुए हैं, विनाश हुआ है और प्रगति में बाधा आई है। आज के वैज्ञानिक युग के खुले बाजार के आयुधों से सुसज्जित विश्वग्राम में यदि सहयोग/ सहकारिता कम होगी तब मानव जाति की सभ्यता ही संकट में पड़ जाएगी क्योंकि तब मनुष्य ही क्या राष्ट्र भी 'अपने' भोग के लिये भ्रष्टाचार करेंगे, जैसा कि कुछ तो आज भी कर ही रहे हैं। दूसरी ओर यह सहकार आंदोलन सफ़ल होने पर भी समस्याओं से घिरा रहेगा क्योंकि इसकी मूलभूत जीवन दृष्टि ही अपूर्ण है। इस सभ्यता पर आ रहे संकट से या समस्याओं से बचने के लिये हमें उपनिषदों में सुझाए गए मूल्यों को स्वीकारना होगा।
सहकारिता में कुछ मात्रा में मानव हित की भावना सन्निहित है, किन्तु, एक तो, इसमें क्न्ज़्यूमैरिज़म अर्थात भोगवाद का सीमित ही विरोध है - जो मात्र मानव की सुरक्षा तक के प्रकृति संरक्षण तक ही सीमित है, सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण नहीं। दूसरे पश्चिम की सुख की अवधारणा में भोग के लिये अतीव उत्कण्ठा, तथा कामातुरता ही परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवन के चरम लक्ष्य हैं। भारतीय दर्शन तो समग्र मानव जाति, प्रकृति सहित समग्र विश्व के लिये सुख की कामना करता है - सर्वे भवन्तु सुखिन:, और उसके सुख की अवधारणा में भोग की उत्कण्ठा नहीं, वरन भोग पर नियंत्रण है, भोग के परे आनंद उसका चरम लक्ष्य है। इसके लिये सहकारिता के मूल्यों में हम ईशावस्य उपनिषद के मंत्र के इस मूल्य 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' अर्थात 'भोगवाद को छोड़कर त्यागमय भोग' अपनाना होगा।
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