
दूसरी बात ये कि जब मैं था तो हरि नहीं था योगीजी का आलेख मैं पढ़ नहीं पाया था मगर जब मित्रों की प्रतिक्रियाएं देखी तो मैं भी इस पोस्ट पर पहुंचा। पूरा आलेख ध्यान से पढ़ा। और कुछ पंक्तियों ने ध्यान आकर्षित किया-
कुछ त्यागने की प्रक्रिया से अहम् से छुटकारा नहीं मिलेगा ,क्यों क़ि त्यागने से त्यागी होने का अहंकार घेर लेगा !केवल साक्षी भाव रखना है , चाहे बंगला है या छोटी सी कुटिया ,तुम्हारा नहीं है !सच तो ये है क़ि तुम स्वयंम भी अपने नहीं हो ,मात्र आत्म-वंचना में जी रहे हो !ध्यान "होने "या "न होने " के पार है !क्यों क़ि "न होने " में भी ये स्वीकार तो कर रहे हो क़ि कुछ था !तुम्हारा कुछ था ही नहीं तो कुछ छोड़ने का कोई रास्ता नहीं !यही यथार्थ है।
साक्षी भाव की यही अनुभूति मुझे अपने शेर में यूं दिखाई देती है-
आग से तो मैं घिरा हूं जल रहा कोई और है
मंजिलें मुझको मिली पर चल रहा कोई और है
आती-जाती सांस की हलचल ने मुझसे ये कहा
जिस्म तो नीरव है जिसमें पल रहा कोई और है

तु दीयं वस्त्र गोविंदम,तुभ्यमेव समर्पये
पंडित सुरेश नीरव
No comments:
Post a Comment