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Tuesday, January 4, 2011

तुझको तेरा ही नमन

अभी पिछले दिनों धर्मशाला प्रवास पर यथार्थ मेडीटेशन सेंटर में हुए फोटो सेशन के कुध दुर्लभ चित्र प्रशांत योगीजी ने मुझे मेल किये है। जनहित में मैं इन्हें ब्लॉग पर जारी कर रहा हूं। 
 दूसरी बात ये कि जब मैं था तो हरि नहीं था योगीजी का आलेख मैं पढ़ नहीं पाया था मगर जब मित्रों की प्रतिक्रियाएं देखी तो मैं भी इस पोस्ट पर पहुंचा। पूरा आलेख ध्यान से पढ़ा। और कुछ पंक्तियों ने ध्यान आकर्षित किया-
कुछ त्यागने की प्रक्रिया से अहम् से छुटकारा नहीं मिलेगा ,क्यों क़ि त्यागने से त्यागी होने का अहंकार घेर लेगा !केवल साक्षी भाव रखना है , चाहे बंगला है या छोटी सी कुटिया ,तुम्हारा नहीं है !सच तो ये है क़ि तुम स्वयंम भी अपने नहीं हो ,मात्र आत्म-वंचना में जी रहे हो !ध्यान "होने "या "न होने " के पार है !क्यों क़ि "न होने " में भी ये स्वीकार तो कर रहे हो क़ि कुछ था !तुम्हारा कुछ था ही नहीं तो कुछ छोड़ने का कोई रास्ता नहीं !यही यथार्थ है। 
साक्षी भाव की यही अनुभूति मुझे अपने शेर में  यूं दिखाई देती है-
आग से तो मैं घिरा हूं जल रहा कोई और है
मंजिलें मुझको मिली पर चल रहा कोई और है
आती-जाती सांस की हलचल ने मुझसे ये कहा
जिस्म तो नीरव है जिसमें  पल रहा कोई और है
ये जो और है यही तत्वमसि है। और जिसने तत्वमसि को मान लिया या जान लिया वही साक्षी भाव में स्वतः पहुंच जाता है। उसे अहं को त्यागने की कोई कवायद करनी ही नहीं पड़ती। और प्रयास से अहं कभी विसर्जित होता भी नहीं है। इसलिए इसकी कोशिश भी बेमानी ही है। राबिया भी यही कहती है,मीरा भी यही कहती है, कबीर भी यही कहते हैं और स्वामी प्रशांत योगी भी इसी तत्वमसि के आत्मसात का आह्वान करते हैं। जब चेतना तू में जाएगी तो मैं रह ही कहां जाता है। इसलिए अब मैं यह भी नहीं कह सकता कि मेरे प्रणाम। तुझको तेरे ही प्रणाम। तेरा तुझको अर्पण। 
तु दीयं वस्त्र गोविंदम,तुभ्यमेव समर्पये
पंडित सुरेश नीरव

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