
भाई आज एक साथ तीन दिग्गजों का शास्त्रार्थ पढ़ने को मिला। बड़ी आनंद मिला। हम सब शब्द के शिल्पी हैं,शब्द के साधक हैं मगर आज की विद्वान चर्चा से जो निष्कर्ष निकल रहा है उसके अनुसार शब्द सीमित हैं।और असमर्थ भी। पंडितजी कहते हैं कि- धारणाओं और अवधारणाओं का कौतुक ध्वस्त होते हुए रचनाकार स्वयं देख सकता है। लेकिन सबकी अपनी मान्यताएं और अवधारणाएं होती तो है हीं। अगर नहीं होंगीं तो ध्वंस किसका होगा। और ध्वंस ही निर्माण का कारण भी है। निर्माण और ध्वंस अन्योन्याश्रित हैं। शायद वे नो इवोल्यूशन विदआउट रिवोल्यूशन की बात कह रहे हैं। अर्थ के संसार में शब्द गिर जाता है। मेरे प्रणाम..
ड़क्टर प्रेमलता नीलम
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