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Tuesday, January 25, 2011

जो गावत है सो खावत है


आज तक चौथे स्तंभ की सुरक्षा करने वाले न जाने कितने देश भक्त देशद्रोहियों की गोलियों का निशाना बन गए. इस स्तंभ की सुरक्षा में कितने मनिषी आजीवन कुवांरे रह गए. और कितने जेल की कालकोठरियों में बंद हो गए, यह ठीक प्रकार से कोई नहीं जान पाया. कितने भूखे नंगे रह गए, कितनी माताओं की गोद उजड़ गई, कितनी बहनें विधवा हुईं, यह कोई नहीं जानता मगर आजकल जो सच उजागर हो रहा है उससे तो सिर्फ इतना ही समझ में आता है कि जो बिकता है वही दिखता है और जो दिखता है वही बिकता है.
दिखने और बिकने वाले क्या जाने कि न बिकने का क्या आनंद है. खैर इस बात को कहना भी आज एक बहुत बड़ी बेवकूफी है लेकिन देश का सौभाग्य देखिए कि आज भी ऐसे तमाम बेवकूफ भारत माता की कोख से अवतरित हो रहे हैं जो जानते हैं कि देश के चारों स्तंभों का व्यापारीकरण हो चुका है. न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया में सिर्फ वही कार्यरत हैं जो भारत माता की कोख का मतलब भी नहीं जानते. वो कुछ भी कर सकते हैं उद्योगपतियों के इशारों पर.
वास्तव में इस राजतंत्र के वास्तविक राजा वो चंद लोग हैं जिन्होंने रोटी, मकान, कपड़ा और सेक्स का मतलब समझा, जो नहीं समझे वो मूर्ख थे. तो क्या फर्क पड़ता है कि किसने कितना त्याग किया. जो त्याग करता है वो अपनी खुशी के लिए करता है. भगत सिंह अपनी खुशी के लिए शहीद हुए और गांधी भी. जिनको खुशी नहीं चाहिए, जो देवता तुल्य हैं वो शासन कर रहे हैं. राजदीप सरदेसाई और बरखा रानी पत्रकार हैं तो शेष सब बेरोजगार हैं. जो गाता है वह खाता है. जो बोलता है वह गंवाता है.
विडंबना देखिए, गाने और खाने वालों की भी कमी नहीं है और बोलकर गंवाने वालों की भी कोई कमी नहीं है. धन्य हो भारत माता ! भगत सिंह और बिस्मिल भी तुम्हीं पैदा करती हो और जयचंद और मीर जाफर को भी तुम्हीं जन्म देती हो. पहले पता चलता था कि कौन जयचंद और मीर जाफर हैं और कौन भगत सिंह और बिस्मिल हैं. अब तो बड़ी ही ह्रदय विदारक स्थिति है माते ! यहाँ तो जयचंद और मीरजाफरों को पद्मश्री दिया जाता है और भगत सिंह और बिस्मिल की रोटी भी छीन ली जाती है. कितने कबीर तेरे आंसूओं को पोंछने में अपना करियर तक दांव पर लगा देते हैं और कितने तो अंग्रजों का पद्मश्री पाने के लिए तेरी अस्मत को नीलाम कर देते हैं.
तू भी क्या कर लेगी. ये तेरे ही बच्चे हैं, तेरी ममता भी इन्हीं को नसीब होती है क्योंकि तू मां हैं न ! इसलिए तू कबीर, भगत सिंह और बिस्मिल को पीड़ा देती है और जयचंद, मीर जाफर, राजदीप, बरखा, प्रभु, वीर, दाऊद, राजा, राडिया, टाटा, रिलायंस, मोदी, अमर, मुलायम, लालू और तमाम राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक राष्ट्रवादी, साम्यवादी, समाजवादी, समतामूलकवादी जो वास्तव में सिर्फ पूंजीवादी हैं उन पर अपनी ममता न्योछावर करती है, क्योंकि तुझे लगता है ये सब एक दिन मनुष्य बन जायेंगे और सबको मनुष्य समझेंगे. पर माता ये तुम्हारी भूल है. ये कभी मनुष्य नहीं बन सकते क्योंकि ये सब संतृप्त सूअरों जैसे हो गए हैं और इस कदर कि विक्षिप्त सुकरात को गंवार और बेरोजगार समझते हैं. वास्तव में इनकी गुलामी तू भी झेल रही है नहीं तो जिन देशभक्तों ने इन्हें सम्मानित किया है वही इन्हीं दंड भी देते, मगर क्या किया जाय.
अंधेर नगरी चौपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा जैसी स्थिति आज भी है. दिन का उजाला है और उल्लूओं का शासन है. तू मां है न ! तो इतना कहे देता हूँ कि ये नहीं सुधरेंगे तो हम भी नहीं सुधरेंगे. लेकिन आत्मा तो चीख चीखकर यही कह रही है कि:
भष्टाचार की चक्की में / पिस गए सभी विचार
मानवता को रौंद दिए सब / मचा है हाहाकार हो मानव
मचा है हाहाकार.जो गावत है सो खावत है : दिन के उजाले में उल्लूओं का शासन
आज तक चौथे स्तंभ की सुरक्षा करने वाले न जाने कितने देश भक्त देशद्रोहियों की गोलियों का निशाना बन गए. इस स्तंभ की सुरक्षा में कितने मनिषी आजीवन कुवांरे रह गए. और कितने जेल की कालकोठरियों में बंद हो गए, यह ठीक प्रकार से कोई नहीं जान पाया. कितने भूखे नंगे रह गए, कितनी माताओं की गोद उजड़ गई, कितनी बहनें विधवा हुईं, यह कोई नहीं जानता मगर आजकल जो सच उजागर हो रहा है उससे तो सिर्फ इतना ही समझ में आता है कि जो बिकता है वही दिखता है और जो दिखता है वही बिकता है.
दिखने और बिकने वाले क्या जाने कि न बिकने का क्या आनंद है. खैर इस बात को कहना भी आज एक बहुत बड़ी बेवकूफी है लेकिन देश का सौभाग्य देखिए कि आज भी ऐसे तमाम बेवकूफ भारत माता की कोख से अवतरित हो रहे हैं जो जानते हैं कि देश के चारों स्तंभों का व्यापारीकरण हो चुका है. न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया में सिर्फ वही कार्यरत हैं जो भारत माता की कोख का मतलब भी नहीं जानते. वो कुछ भी कर सकते हैं उद्योगपतियों के इशारों पर.
वास्तव में इस राजतंत्र के वास्तविक राजा वो चंद लोग हैं जिन्होंने रोटी, मकान, कपड़ा और सेक्स का मतलब समझा, जो नहीं समझे वो मूर्ख थे. तो क्या फर्क पड़ता है कि किसने कितना त्याग किया. जो त्याग करता है वो अपनी खुशी के लिए करता है. भगत सिंह अपनी खुशी के लिए शहीद हुए और गांधी भी. जिनको खुशी नहीं चाहिए, जो देवता तुल्य हैं वो शासन कर रहे हैं. राजदीप सरदेसाई और बरखा रानी पत्रकार हैं तो शेष सब बेरोजगार हैं. जो गाता है वह खाता है. जो बोलता है वह गंवाता है.
विडंबना देखिए, गाने और खाने वालों की भी कमी नहीं है और बोलकर गंवाने वालों की भी कोई कमी नहीं है. धन्य हो भारत माता ! भगत सिंह और बिस्मिल भी तुम्हीं पैदा करती हो और जयचंद और मीर जाफर को भी तुम्हीं जन्म देती हो. पहले पता चलता था कि कौन जयचंद और मीर जाफर हैं और कौन भगत सिंह और बिस्मिल हैं. अब तो बड़ी ही ह्रदय विदारक स्थिति है माते ! यहाँ तो जयचंद और मीरजाफरों को पद्मश्री दिया जाता है और भगत सिंह और बिस्मिल की रोटी भी छीन ली जाती है. कितने कबीर तेरे आंसूओं को पोंछने में अपना करियर तक दांव पर लगा देते हैं और कितने तो अंग्रजों का पद्मश्री पाने के लिए तेरी अस्मत को नीलाम कर देते हैं.
तू भी क्या कर लेगी. ये तेरे ही बच्चे हैं, तेरी ममता भी इन्हीं को नसीब होती है क्योंकि तू मां हैं न ! इसलिए तू कबीर, भगत सिंह और बिस्मिल को पीड़ा देती है और जयचंद, मीर जाफर, राजदीप, बरखा, प्रभु, वीर, दाऊद, राजा, राडिया, टाटा, रिलायंस, मोदी, अमर, मुलायम, लालू और तमाम राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक राष्ट्रवादी, साम्यवादी, समाजवादी, समतामूलकवादी जो वास्तव में सिर्फ पूंजीवादी हैं उन पर अपनी ममता न्योछावर करती है, क्योंकि तुझे लगता है ये सब एक दिन मनुष्य बन जायेंगे और सबको मनुष्य समझेंगे. पर माता ये तुम्हारी भूल है. ये कभी मनुष्य नहीं बन सकते क्योंकि ये सब संतृप्त सूअरों जैसे हो गए हैं और इस कदर कि विक्षिप्त सुकरात को गंवार और बेरोजगार समझते हैं. वास्तव में इनकी गुलामी तू भी झेल रही है नहीं तो जिन देशभक्तों ने इन्हें सम्मानित किया है वही इन्हीं दंड भी देते, मगर क्या किया जाय.
अंधेर नगरी चौपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा जैसी स्थिति आज भी है. दिन का उजाला है और उल्लूओं का शासन है. तू मां है न ! तो इतना कहे देता हूँ कि ये नहीं सुधरेंगे तो हम भी नहीं सुधरेंगे. लेकिन आत्मा तो चीख चीखकर यही कह रही है कि:
भष्टाचार की चक्की में / पिस गए सभी विचार
मानवता को रौंद दिए सब / मचा है हाहाकार हो मानव
मचा है हाहाकार।
अभिषेक मानव

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