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Saturday, January 22, 2011

एक नई रचना

जय मंगल के प्रिय मित्र सर्व श्री भगवान् सिंह ,पंडित सुरेश नीरव ,तिवारी जी ,प्रशांत नेगी और भाई अरविन्द पथिक ! आपकी संवेदनाओं के लिए हार्दिक आभार, एक नई रचना के माध्यम से फिर से आपके सामने हूँ

आवाजों वाला घर

जी हाँ
मैं घर बनाता हूँ
लोह लक्कड़ ईंट पत्थर
काठ कंकर से खडा कर
द्वार पर पहरा बिठाता हूँ
जी हाँ ! मैं घर बनाता हूँ

एक दिन
मेरे भीतर का मैं
बाहर आया
चारो ओर घूमकर
चिकनी दीवारों पर हाथ फेरकर
खिडकियों और दरवाजों को
कई कई बार
खोलकर बंदकर
संतुष्टि करता हुआ बोला :-
क्या ख़ाक घर बनाते हो
मैं बताता हूँ तुमेंह घर बनाना
घर बनता है घर कि आवाजों से
चढ़ती उतरती सीडिओं पर घस घस
बर्तनों कि टकराहट
टपकते नल कि टप टप
द्वार पर किसी की ठक ठक
रसोई से कुकर की सीटी
स्नानघर से हरिओम तत्सत
पूजाघर से टनन टनन
आरती के स्वर
आँगन से बच्चों की धकापेल
दादा की टोका टाकी
उपरी मन से
दादी की कोसा काटी
और इसी बीच
महाराजिन का पूछना
"बीबीजी ! क्या बनाऊं ?"
जब तक यह सब कुछ नहीं
तब तक घर घर नहीं
मत कहना दोबारा
कि मैं घर बनाता हूँ
जी हाँ मैं घर बनाता हूँ

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