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Saturday, January 1, 2011

३. सहकारिता - कल, आज और कल



3. सहकारिता तथा प्रेम में गहरा सम्बन्ध है। वैसे तो 'लगाव' से ही लोग आपस में जुड़ सकते हैं, और कार्य भी कर सकते हैं, किन्तु लगाव में वह सेवा भाव नहीं हो पाता जैसा कि प्रेम में‌ होता है। प्रेम सहज ही सहायता करने की प्रेरणा और शक्ति देता है। प्रेम सहकारिता की शक्ति को और सुदृढ़ करता है। बिना प्रेम के सहायता या सहकारिता निरी व्यावसायिक कहलाती‌ है। सहकारिता सफ़लता के लिये 'नैतिकता' की‌ मांग करती है, अन्यथा इसमें अक्सर एक पक्ष की स्वार्थ सिद्धि तो हो सकती है, किन्तु दोनों पक्षों के लाभ की सही सिद्धि शायद ही हो; किन्तु थोड़ा सा भी प्रेम होने पर दोनों पक्षों के उचित स्वार्थ की सिद्धि हो सकती है। ग्वाला प्रेम होने पर नकली दूध तो नहीं बेचेगा। दान की अपेक्षा रखने वाले विद्वान साधुओं के भी संगठन होते हैं, जिनकी कार्य पद्धति 'सहकारी' नहीं होती, उनके प्रवचन व्यवसाय नहीं‌ वरन सहायता हैं क्योंकि वह श्रोताओं के जीवन के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हैं और सुखी जीवन के लिये सहायता करते हैं, उनमें आपके लिये प्रेम है, उनका कार्य व्यवसाय नहीं‌ है, यद्यपि इसके अपवाद भी होते हैं। अपने लाभ के लिये स्वकेन्द्रित व्यक्ति हानिकारक चिप्स तथा कोला भी बेचेगा या बिकवाएगा चाहे वह कोला की कम्पनी या आपका प्रिय क्रिकैट का हीरो या फ़िल्मों का हीरो क्यों न हों, उनसे हमें सावधान ही रहना चाहिये क्योंकि इस तरह यह सच्ची सहायता नहीं, वरन लूटने वाला व्यापार हैं, वे आपकी सहृदयता का शोषण कर रहे हैं!!

सहकारिता का कार्यक्षेत्र बहुत विशाल तथा गहरा है। पति पत्नी का जोड़ा परिवार की इकाई है, जो संतान का पालन पोषण कर सृष्टि को चलाता है। भारतीय परम्परा में वैवाहिक सम्बन्ध संस्कारों पर आधारित होते हैं; किन्तु आजकल पति पत्नी के संबन्ध भी 'सहकारिता' के अन्दर आने लगे हैं क्योंकि वे एक तरह के कानूनी अनुबन्ध हो रहे हैं। यदि इनमें प्रेम या सहयोग या सहकारिता (अनुबन्ध विवाह में) न हो तो पति पत्नी तो दुखी होंगे ही, सृष्टि ही दुखी हो जाए। पति तथा पत्नी के बीच सहयोग या सहकारिता सहज है भी और नहीं भी। सहज इस अर्थ में है कि पुरुष और नारी में सहज आकर्षण तो होता है और वे एक दूसरे की सहायता सहर्ष कर सकते हैं। किन्तु अक्सर यह आकर्षण अपने भोग के लिये ही सहयोग उत्पन्न करता है, अत: उसमें स्थायित्व कठिनाई से ही आ सकता है। अतएव उसे अपेक्षाकृत स्थायी बनाने के लिये संस्कृति और समाज उनके बीच सच्चा प्रेम उत्पन्न कराते हैं, वरना यह जीवन चक्र सुचारु रूप से नहीं चल सकता। माता पिता तथा संतान के बीच प्रेम या सहयोग या सहकारिता (दुर्भाग्य ही कहना पड़ेगा कि, बच्चों के मानवाधिकार के नाम पर इस पावन संबन्ध को भी 'अनुबन्ध' बनाया जा रहा है) इतनी अधिक महत्वपूर्ण है कि प्रकृति ने इसे तो सहज या जन्मजात बना दिया है, तब भी संस्कृति का कार्य इसमें भी महत्वपूर्ण है।

सहकारिता के बिना न तो यह शारीरिक रूप से दुर्बल मनुष्य अपनी रक्षा कर पाता और न अपना विकास, क्योंकि आदिम काल में‌ तो पहले उसके पास लाठी और पत्थर के अतिरिक्त हथियार भी‌ नहीं थे। यह तो स्पष्ट है कि सहकारिता पर आएधारित ज्ञान और प्रौद्योगिकी के बिना न तो विद्युत, यांत्रिक वाहन, विमान, उपग्रह, मोबाइल फ़ोन, टीवी, चिकित्सा, नगर आदि होते और न यह सभ्यता होती। किन्तु मानव समाज की संस्कृति कैसे भ्रष्ट हो गई? जैसे ही सहकारिता निरी व्यावसायिकता में बदल गई, वैसे ही संस्कृति भोगवादी संस्कृति बन ग़ई। आज मनुष्य न केवल हाथियों और सिंहों पर राज्य कर रहा है, वरन अपनी सफ़लता के घमण्ड पर अपने को प्रकृति का स्वामी समझ कर उसका विनाश कर रहा है। उसने न केवल पाँचों तत्वों - आकाश, वायु, अग्नि, जल और मिट्टी (पृथ्वी) को प्रदूषित कर दिया है, वरन छठवां तत्व हमारा मन भी‌ प्रदूषित कर दिया है।

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