Search This Blog

Friday, January 7, 2011

                  मैं विद्वान् नहीं ,प्रकांड तो दूर की बात है !सच तो ये है कि मुझे विद्वानों से डर भी लगता है !विशेषकर ऐसे विद्वान् जो भारी-भारी शब्दों को परोसकर थोड़ा आतंक तो कर देते हें ,लेकिन भाव कहीं खो जाते हें !शब्दों का अपना कोई अर्थ नहीं होता ,इशारा होते हें शब्द !शब्द अंतिम नहीं ,जीवन शब्दों से पहले भी था !इंगित करते हें शब्द ,चल पड़े तो बैंजू बाबरा रुक गए तो तानसेन !......हाँ अर्थ का अनर्थ भी नहीं होना चाहिए !
                      साक्षी भाव से प्राकृतिक अनुसरण ही जीवन है ! सिद्धार्थ के भाई ने जब हंस को तीर से घायल किया तो सिद्धार्थ करुणा से भर गए !साक्षी दोनों हें ,दोनों ने देखा ,दोनों ही हक जता रहें हें लेकिन सिद्धार्थ का हक साक्षी होने के साथ प्रकृति का अनुसरण भी है !प्रकृति जो करुणा सिखाती है !
                   दो व्यक्ति खड़े हें और सड़क पर किसी के साथ अनाचार हो रहा है ! दोनों साक्षी हें ,लेकिन दोनों की मनोदशा भिन्न-भिन्न है !एक उस बलात्कार का आनंद ले रहा है और दूसरा मन ही मन द्रवित हो रहा है !असमर्थ है लेकिन कुछ उठ तो रहा है मन में !दूसरा व्यक्ति मनुष्यता का प्राकृतिक अनुसरण कर रहा है !दूसरा व्यक्ति अपने मौलिक स्वभाव में लोटने की प्रक्रिया में है !
                   द्रौपदी का चीर-हरण  (अगर हुआ है )में  दुरियोधन तमाश -बीन ही नहीं आनंद भी ले रहा है ,लेकिन भीष्म द्रवित है !साक्षी दोनों हें !लेकिन भीष्म आत्म-ग्लानि से द्रवी-भूत हो रहे हें !भीष्म अपने प्राकृतिक स्वभाव में हें ,साक्षी होने के साथ -साथ !पूर्णता न सही कुछ पिघल तो रहा है अन्दर -अन्दर ! भीष्म साक्षी होने के साथ-साथ मनुष्यता की प्रकृति का भी अनुसरण कर रहें हें !
                       मानवीय संस्कार  डाले नहीं जाते, होते हें !शब्दों और प्रवचनों से अगर संस्कार आते तो आज पाँच करोड़ साधुओं के देश में कोई संस्कार-विहीन नहीं होता !
                      पुनः जंगलों की तरफ भागने से  मौलिकता नहीं आएगी ,मौलिकता जागने में है !स्वयंम को पहचानने से ही मौलिकता संभव है ! प्राकृतिक स्वभाव में लौटने अर्थ ये नहीं नहीं कि तुम  (आप )लंगोट खींच कर हिमालय की कंदराओं में चले जाओ !मशीन से मनुष्य की तरफ लौटना  ही प्राकृतिक स्वभाव में लौटना है !एक स्वभाविक मनुष्य की तरफ !
                                        मैंने कोई वेद ग्रन्थ नहीं पढ़े ,भाषा की मुझे बहुत समझ नहीं ,साहित्य की ग्रामर  से मैं बिल्कुल अनभिज्ञ हूँ ! छंद ,मात्रा क्या होती हें मैं नहीं जानता ! लेकिन मैं जो कहता हूँ , उसे मेरे घर में काम करने वाली महिला अच्छी तरह समझ लेती है !
                               आदरणीय तिवारी जी किन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रसित न हों !और सच तो ये है कि मैं भी कोई पूर्ण नहीं ,यात्रा-मय हूँ ,संवाद-मय हूँ !आलोचना हितकारी है, ,कुछ स्वस्थ संवाद तो बनता है !
              मैं तो पहले ही आदरणीय नीरव जी से निवेदन कर चूका हूँ कि थोड़ी जगह अपने ब्लॉग पर फक्कड़ कबीरों के लिए भी रखें  !मेरे पास सब उधार का है ,पैगम्बरों का ऋणी हूँ मैं !
            मेरे शब्द अंतिम नहीं ,सत्य मुझसे पहले भी था शब्द मेरे बाद भी होंगे ! मेरे प्रणाम स्वीकारें !
           आदरणीया डॉ. प्रेम लता नीलम जी काफी दिन से केवल प्रतिक्रियाएं ही लिख रही हैं ,ग़ज़लें कहाँ गईं !        प्रशांत योगी

No comments: