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Thursday, January 13, 2011


२६ जनवरी‌ भारत के इतिहास में एक स्वर्णिम अक्षरों से लिखी जाने वाली तिथि है। किन्तु हमें इतिहास से कुछ सीखना भी चाहिये। एक तो यही कि हम अपनी राष्ट्रभाषा का मह्त्व समझें और उसके उत्कर्ष के लिये कुछ करें। इसी ध्येय से हम हिन्दी कैल्किआन, जिसका हमने हिन्दी विज्ञान कथा के लिये प्रमोचन किया था, में अब सामान्य हिदी साहित्य की रचनाएं भी प्रकाशित करना आरंभ कर रहे हैं. इससे हमें आशा है कि दो संस्कृतियों - विज्ञान और कला साहित्य आदि - के बीच एक सेतु भी‌ बनेगा। आज की देश की स्थिति को देखते हुए हमें यह भी विचार करना आवश्यक है कि हमारी स्वतंत्रता की दशा क्या है।

आज की पतनशील अवस्था के देखते हुए, सबसे पहल प्रश्न तो यही उठता है कि क्या हम सचमुच में स्वतंत्र हैं? राजनैतिक रूप से तो बहुत सीमा तक स्वतंत्र हैं, किन्तु वह भी पूर्ण रूप से नहीं!! शायद बहुत कम ऐसे देश हैं जो इस आर्थिक उपनिवेशवाद के जमाने में पूर्ण स्वतंत्र हों। वैसे यह भी विचारणीय़ है कि क्या मानव समाज में पूर्ण स्वतंत्रता जैसी आदर्शात्मक अवधारणा संभव है भी‌ या नहीं। तब भी इसका अर्थ यह तो नहीं कि हम आर्थिक या भाषाई परतंत्रता सहर्ष स्वीकार करें। किन्तु इन सब स्वतंत्रताओं के पहले एक और स्वतंत्रता आती‌ है- ' जीवन दृष्टि ' की स्वतंत्रता !!

मुझे अचरज होता है अमेरिका की दूर दृष्टि पर कि उऩ्होंने तो द्वितीय विश्वयुद्ध में हुए उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद ही आर्थिक उपनिवेशवाद की‌ नींव डाल दी थी। और वह नीव डालते हुए उसने देखा कि उसकी सुदृढ़ता के लिये देशों की ' जीवन दृष्टि ' ही बदलना पड़ेगी। और उसने युद्धजनित 'भुखमरी' से त्रस्त लोगों को भोगवाद का सपना दिया। भोगवाद का अर्थ है भोग की वस्तुओं का निरंतर प्रगतिशील उत्पादन और उनका निरंतर 'विवश' भोग। लगता है कि आदमी निरंतर भोग के लिये शापित (कन्डैम्ड) है, उसे अपने भोग में प्रतिवर्ष कम से कम १० % की वृद्धि करना है। यही सच्ची प्रगति है, जीवन का सच्चा ध्येय है, सुखप्रदान करने वाला है। जिसने बाद में 'बाजारवाद' का रूप ग्रहण किया, जिसका वास्तविक उद्देश्य बाजारवाद के द्वारा आर्थिक उपनिवेश स्थापित करना है। बाजारवाद में‌ बाजार ही आदमी का जीवन नियंत्रित करता है; उसे अब एक बड़ी कार या एक और कार खरीदना है तब उसे और 'लोन' लेना पड़ेगा और वह कैसे पटेगा. . . . . .। बाजारवाद की सफ़लता यही इंगित करती है कि बाजारवादी लोगों की जीवन दृष्टि ही भोगवादी हो गई है।

वैसे यह भोगवादी जीवन दृष्टि पश्चिम की पारंपरिक जीवन दृष्टि है; यदि यह नई है तो केवल भारतीय विचारों से प्रभावित देशों के लिये; कहना चाहिये कि हमारे लिये यह दृष्टि न केवल नई नहीं है वरन त्याज्य है। भारतीय दर्शन में, धर्मग्रन्थों में तथा नैतिक संहिताओं में इस दृष्टि पर बहुत विचार हुआ है और प्रयोग हुआ है। उऩ्होंने पाया कि भोगवाद से सुख ही नहीं मिलता वरन दुख बढ़ता है, अनैतिकता बढ़ती‌ है।

क्या हम भोगवाद के गुलाम हैं? क्या हम सच्ची प्रगति और समृद्धि नहीं चाहते? प्रगति क्या है? क्या प्रगति केवल बिजली, कपड़े, कार, जूते, शराब, दवाइयां आदि से ही नापी जा सकती है? क्या सुख मापा जा सकता है? क्या भोगवाद तथा अनैतिकता और अपराधों में सीधा या तिरछा सम्बन्ध है? प्रौद्योगिकी तो सुख के संसाधनों को दिन दूने रात चार गुने बढ़ा रही है। क्या हम अपनी इस अंधी दौड़ में कुछ रुककर सोचें कि हम कहां जा रहे हैं?

जनतंत्र दिवस के इस शुभ अवसर पर हम सोचें कि सच्ची स्वतंत्रता क्या है? यह विषय बहुत सम्वेदनशील हैं, और सामान्य जन के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं, इस गूढ़ गम्भीर वाद विवाद के लिये साहित्य विशेषकर 'विज्ञान कथा' उपयुक्त माध्यम है। विज्ञान कथा तो भविष्य में‌ झाँकने को अपना कर्तव्य मानती है।

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