संख्या बल से चुप कर दो पर
मौन मुखर होगा बोलेगा,
चाहे जितने जोर लगा लो ,
झुंड बना लो ज्यों ही चलूंगा
बौनों का अंतर डोलेगा,
नये-नये तर्कों को गढ लो बांसों के ऊपर भी चढ लो
ओछापन हर जगह दिखेगा,
ओछापन हर तरह दिखेगा,
मौन मुखर होगा बोलेगा,
ज्यों ही अधरों को खोलेगा,
कंठित कहो कहो तुम पागल
या आजमाओ तुम अपना बल
सच का सूरज चुपके-चुपके
आहिस्ते से उजियारी गठरी खोलेगा
जोड-घटाना हानि लाभ का
चक्कर हमसे नही चला है,नही चलेगा,
होम करेंगे तो यह तय है
फिर से हमारा हाथ जलेगा
मगर जरुरत पडी तो
सबसे पहले आतुर मन स्वाहा बोलेगा
ज्यों ही अधरों को खोलेगा
मौन मुखर होग.
1 comment:
पथिक भाई , आपकी शैली-आपके तेवर . तब जैसे थे , अब भी वैसे हैं . १९९० की स्मृतियाँ सजीव हो उठीं . सुंदर रचना के लिए बधाई .
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