
क्या यह संयोग है क़ि लगातार तीन पोस्ट ऐसे आ जाएं - प्रशांत योगी जी, बोडो कविता और गौड़ साहब क़ी कविता - जो आज के जीवन क़ि भयावहता को , अमानवता को , अप्राक्रितिकता को इतने हृदय स्पर्शी काव्य में अभिव्यक्त करें !!
हम सभी का कर्तव्य बनता है कि हम मानवता को वापिस लाएं, और इसके उत्तर भी तीनों पोस्ट में हैं
"प्रखर धुप जीवन की
जाने कब सुरमई हुई
फिर धीरे धीरे चुपके चुपके
उतरी आँगन सांझ
अंतर कलह पी गई रौनक
खुशियाँ हो गईं बाँझ
आनन् फानन चौड़े आँगन
होने लगी चिनाई
सूनी आँखों अम्मा ताके
जबरन रोक रुलाई
कटे पेढ़ से घर के मुखिया
बैठे द्वार अकेले
टाक रहे सूने अम्बर में
विगत काल के मेले"
"क्योंकि अब वर्षा ऋतु की रातों में नहीं सुनाती कोई नानी
अपने छोटे बच्चों को कहानी
जिसे सुनकर बच्चे देखने लगें नन्ही आंखों में आसमान के सपने
अब कोई नहीं आता किसी का टूटा घर बनाने को
अब नहीं जुतते बैल की जगह हल में लोग
किसी के खेत को जोतने के लिए
अब खयाल सबके अपने हैं, जहां सिर्फ अपने घर के सपने हैं
अब लोग बड़े हो रहे हैं,सामनेवाले को रौंदकर खड़े हो रहे हैं
इसलिए बुझ गई है प्यास की चिंगारी संसार में
बुझा-बुझा-सा आकाश है
इसलिए बुझ गया अब हमारे मन का आकाश है।"
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