
कुछ अंश आपके लिए -
अन्तः विरह केवल विरह, बहु कालिक उपवास।
पति सेवा नारी धर्म, अंतर मन की आस । ।
मांडवी उर्मिला से कहती है कि उर्मिला! नारी का अन्तः विरह तो केवल विरह ही होता है। वह लम्बे समय तक उपवास भी करती है। परन्तु नारि का धर्म तो पति की सेवा ही है। यह ही मेरे अंतर्मन की आशा है।
प्रज्वलित एक दीपक लौ, प्रतिबिंबित तिरलोक।
निशिदिन घट प्रिय की मूर्ति, तम सम मेटे शोक। ।
एक दीपक की प्रज्वलित लौ तीनों लोकों में प्रतिबिंबित होती है। और मेरे ह्रदय में बसी प्रिय(स्वामि) की मूर्ति निशिदिन मेरे शोक को अंधकार की तरह मिटा देती है।
रचयिता- भगवान सिंह हंस
प्रस्तुति - योगेश विकास
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