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Tuesday, February 8, 2011

लो वे आ गए

कहीं फँस गए होंगे , आ रहे होंगे । ये कविता की पंक्तियाँ लिख ही रहा था, लिखते-लिखते एक कलकल मुस्कराती आवाज ने मेरी कविता की अभिवृद्धि को यहीं रोक दिया। मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। कविता की ये पंक्तियाँ साकार हो गयीं। कहीं फँस गए होंगे ,आ रहे होंगे। और लो वे आ गए। अन्तः की चाह और शब्द की पराशक्ति कहाँ पहुँचती है , कोई नहीं जानता है। यह सत्य है कि शब्द की पीयूषमयी अभिव्यक्ति जब आत्मा से होती है तो वह प्रेम-मिलन को अवश्य साकार करती है। यह आज मैं ने जाना। मेरे शब्द -आ रहे होंगे और वे लो वे आ गए । वे हैं मेरे परमप्रेमी श्री पूनमजी जिनका अचानक फोन आया और मेरी घंटी बजी। मुझे बड़ी हार्दिक ख़ुशी हुई क्योंकि एक लम्बे अन्तराल के बाद मिलन हुआ। मैं तो अपनी कविता ही लिखना भूल गया। मेरी कविता का मर्म पूरा हुआ। प्रणाम।
भगवान सिंह हंस



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