
पंडित सुरेश नीरवजी,
कभी पढ़ा था कि- जैं-जैं पांव पड़ें संतन के तैं-तैं बंटा ढार। आप सचमुच मैं पहुंचे हुए संत हैं क्योंकि पहले ाप धर्मशाला गे तो वहां करमापा कांड हो गया फिर आप इजिप्त गए तो वहां बगावत हो गई। संत वही है जो सोए हुे समाज को जगाए। आपने दोंनों जगह अपनी उपस्थिति से ये काम कर दिया। आप महान हैं। पहुंचे हुए संत हैं। आप को कोटि-कोटि प्रणाम। बस हमारी दिल्ली पर कृपा दृष्टि बनाए रखें। आपसे यही विनती है।
भाई अरविंद पथिक का ऐतिहासिक काव्य पढ़ रहा हूं। बिस्मिलजी पर इतनी अच्छी काव्य रचना मैंने आज तक नहीं पढ़ी। पथिकजी की लेखनी में ओज है। इन पंक्तियों मैं काफी-कुछ है-
ग्वालियर राज्य से चलकर के बिस्मिल के बाबा आये थे

कुछ खट्टी - मीठी स्मृतियां,अपने संग लेकर आये थे
उन दिनो देश मे था अकाल ,दुर्भिक्ष बडा भयकाररी था
शासन सोया था निद्रा मे अमला सब अत्या चारी था
थी मिली नौकरी मुश्किल से रूपये बस तीन ही मिलते थे
बच्चों के कोमल भाव देख ,पंडितजी अक्सर डिग जाते थे
आ लौट चलें अपने घर को ,कहते कहते रुक जाते थे
श्रम धैर्य देखकर पत्नी का , दुख दर्द सभी सह जाते थे।
ओमप्रकाश चांडाल
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