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Tuesday, February 22, 2011

बेटा इशु तुम्हारे लिए

Comments (0) Published on January 9, 2011 at 4:36 pm by अभिषेक मानव
सदगुरु ढूंढ़न चला कबीरा

कबीर बचपन से ही जिज्ञासु स्वभाव वाले चंचल बालक के रूप में बदनाम थे. जानने की इच्छा ने उन्हें कुख्यात बना दिया. एक तरफ जहाँ सभी बच्चे अत्यंत आज्ञाकारी थे, अपने से बड़ों का अनुसरण करते थे वहीँ दूसरी तरफ कबीर प्रत्येक बात पर क्यों रूपी शब्द का ठप्पा लगाकर सामने वाले को चकित व पीड़ित कर देते थे. समस्त मानव जाति के हृदय को जोड़कर सृष्टि से द्वेष को मिटाना चाहते थे तो प्रत्येक मनुष्य से निरंतर प्रेम में संलग्न रहा करते थे कबीर.
परन्तु समाज उल्टी धारा में बह रहा था. लोग समझते थे कबीर कुछ पाना चाहते हैं इसलिए प्रेमाभिनय करते हैं. सो, लोग उनका शोषण करने का विफल प्रयास करते थे. परन्तु कबीर तो कबीर थे. उनका शोषण भला कौन कर सकता था ? अब लोग जब उनका शोषण नहीं कर पाते तो बदले की भावना से प्रेरित हो उनकी उपेक्षा करने लगते. कभी-कभी कबीर प्रेम के बदले प्रेम न मिलने से अत्यंत दुखी हो जाते थे. धीरे-धीरे उन्हें दुःख सहने की आदत पड़ गई. वो सत्य की खोज करते रहे. घर वालों ने उनके चाल-चलन से दुखी होकर उन्हें हास्टल में डाल दिया.
हास्टल में भी कबीर को कोई बदल नहीं पाया. कबीर जस-के-तस ही रहे. कई शिक्षक उनसे त्रस्त होकर उनकी पिटाई भी करते, लेकिन कबीर की आत्मा की मांग को पूरी नहीं कर पाते. विद्यालय परिसर में भी कबीर ख़ासा चर्चित हुए. मगर शिक्षकों के भय से उनसे कोई छात्र या छात्रा वार्तालाप नहीं करते. शिक्षकों के चहेते बच्चे उन्हें भद्दी-भद्दी गालियाँ सुनाते और नित नए तरीकों से उन्हें चिढाने का प्रयास भी करते. उनको बार-बार क्षमा करने से कबीर बचपन में ही हृदय सम्राट हो गए. कुछ समय के पश्चात कबीर सांसारिक जगत में भी स्नातक हो गए. आगे की शिक्षा दीक्षा के लिए माँ बाप ने कबीर को महानगर भेज दिया. आगे की पढ़ाई करने में विफल रहे कबीर.
चारों तरफ अनैतिकता के माहौल में कबीर का दम घूंटने लगा. फिर क्या था. अचानक कबीर यायावर हो गए. उम्र के साथ बदनामी के क्षेत्रफल में भी ख़ासा विस्तार हुआ. बदनामी देश की सीमाओं के बाहर भी होने लगी, क्योंकि उनके बाबूजी एक अंतर्राष्ट्रीय विद्वान थे. अतः लोगों को सही मौका मिला और लोग उनके व्यक्तित्व पर भी ऊँगली उठाने लगे. उनके बाबूजी निराश और विक्षिप्त हो गए. कभी-कभी पिता के कोपभाजन का शिकार हो जाते कबीर. फिर पिता का वात्सल्य प्रेम उमड़ पड़ता तो पिता उन्हें गोद में भरकर समझाते कि जानता हूँ तुम सत्यव्रती हो, सत्यपक्षी, सत्यानुरागी हो ! तुम्हारी हर बात ठीक है लेकिन तुम अकेले किस प्रकार से समाज का मार्गदर्शन करोगे ? इस समाज के ताने बाने को भी जरा समझो कबीर. नहीं तो यही समाज जिसका तुम भला करना चाहते हो तुम्हें बदनाम करके तुम्हारी जान ले लेगा. तब कबीर कहते – बाबूजी आप ही ने तो कहा था कि सत्य की यात्रा करने से इश्वर मिलते हैं. फिर उनके पिता की आँखें छलक जातीं.
अंततः पिता ने वार्तालाप बंद कर देना ही उचित समझा. कबीर द्वन्द में ही रहने लगे. ढेर सारे लोग उनकी उपेक्षा करना ही अपना महत्वपूर्ण कार्य समझने लगे. आगे की यात्रा के लिए कबीर को गुरु की आवश्यकता हुई. कुछ शुभचिंतकों ने उन्हें मंडी हाउस स्थित दूरदर्शन का रास्ता दिखा दिया (यह कहकर कि उस सरकारी दफ्तर में केवल भगत सिंह के वंशज रहते हैं). कबीर उछलते हुए कार्यालय परिसर में स्थित एक गगनचुम्बी इमारत में दाखिल हो गए. एक गुरु भी मिले. उनके दफ्तर में भगत सिंह और विवेकानंद की छवियों के समक्ष अगरबत्ती जलता देख, कबीर अत्यंत भावुक हो गए. खुशी थी कि नाचने को बेताब थी. कबीर ने अपने छंदों का पिटारा खोला तो गुरु जी चौंक गए.
दरअसल वह गुरु अपनी सांसारिक जिंदगी में न जाने कब अपनी अंतरात्मा को ही भूल गए थे. लोग उनके पद के प्रभाव से ही उनके समक्ष नतमस्तक होते थे और उन्हें विद्वान मानते थे. सरकारी महकमे में एक बड़ा ताल्लुक रखते थी गुरुदेव. इसलिए लोग उनसे भयभीत भी रहते थे क्योंकि उनके समक्ष नतमस्तक न होने का सीधा मतलब था अपनी रोजी रोटी से बेदखल हो जाना. फिर भी कबीर अपनी सत्यता के साथ डटे रहे. एक दिन गुरुदेव भी कबीर से खिन्न हो गए क्योंकि भूखे कबीर ने उनसे रोजी रोटी कमाने हेतु कुछ मार्गदर्शन करने को कह दिया. और उसी दिन यह भी साबित हो गया कि कभी-कभी भूख कबीर पर भी भारी पड़ जाती है.
जब गुरुदेव का क्रोध शिखर पर गया तो वह कबीर को उन बुद्धिजीवियों के बीच ले गए जो प्रत्येक शाम एक क्लब में उपस्थित होते थे. मदिरा, मांस और सिगरेट के साथ-साथ वहाँ उच्च कोटि का भोजन सस्ते दर पर सत्ता द्वारा बुद्धिजीवियों के लिए उपलब्ध था. गुरुदेव ने कबीर से कहा: गौर से देखो, ये देश के बुद्धिजीवियों का बाजार हैं. ये भी तुम्हारे जितना सच जानते हैं. मगर ये किसी न किसी विचारधारा के हाथों बिक गए हैं, क्योंकि ये सत्य की यात्रा नहीं कर सकते. अगर तुम भी जीवन यापन करना चाहते हो तो किसी न किसी राजनीतिक दल के प्यादे बन जाओ. यहाँ बिना बिके रोटी नहीं मिलती. इनसे अलग जाओगे तो ये सब मिलकर तुम्हें इतना बदनाम कर देंगे कि तुम रोटी रोटी को मोहताज हो जाओगे और लोग तुम्हें अपराधी जैसा समझने लगेंगे. फिर क्या करोगे ? हम लोग अल्पसंख्यक हैं और ये बहुसंख्यक. दरअसल सदियों से इसी प्रकार के लोगों की सत्ता रही है. ये थोड़ा सा धन, पद, और पुरस्कार पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और तुम थोड़े से सत्य की हिफाजत के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी भी दे सकते हो. ये हृदयविहीन हैं; तुम हृदयसम्राट हो. तो बताओ इनके बीच कैसे रहोगे ?
कबीर का मन धीरे-धीरे गुरुदेव के प्रति भारी होता चला गया. क्योंकि वह कबीर पर इतनी नकारात्मकता लाद देना चाहते थे कि कबीर की सकारात्मकता नकारात्मकता में तब्दील हो जाए. गुरुदेव धीरे-धीरे कबीर को तोड़ रहे थे. कबीर ने गुरु का बुरा नहीं माना क्योंकि ये सारी बातें कबीर पहले भी अपने बाबूजी के मुंह से सुन चुके थे. कबीर ने अपनी आत्मा को मना लिया कि जब सम्मान दे ही दिया है तो अब तो हमेशा ही देना पड़ेगा. इसलिए बे … गुरु हो गए कबीर.
मगर एक बात भूतपूर्व गुरुदेव की सदैव ही कचोटती रही कबीर को कि गुरुदेव ने शुरूआती मुलाकातों में कबीर से सब कुछ सच सच क्यों बोला ? जो बातें उन्होंने शुरू में कहीं उन सभी बातों पर अंत तक तटस्थ क्यों नहीं रहे गुरुदेव ? जब खुद कबीर को पीड़ा पहुंचा ही दिए तो फिर कबीर को अकेला ही क्यों नहीं छोड़ दिया उन्होंने ? और तो और कबीर को पागल समझकर दो पियक्कड़ों के अधीन क्यों कर दिया गुरुदेव ने, महानगर में ?
उधर पियक्कड़ों की संगति में गंवाया बहुत कुछ तो शराब पर चिंतन करने का मौका भी मिल गया कबीर को. लगभग छः मास की प्रक्रिया से गुजरने के बाद कबीर ने यही पाया कि शराब में कोई बहुत बड़ी बुराई नहीं है यदि आप अधर्मी हैं. क्योंकि शराब आत्मा के अचेतन पक्ष के लिए औषधि है जबकि चेतन पक्ष के लिए जहर. शराब पीने वाला व्यक्ति कुछ दिनों के पश्चात पशु सामान हो जाता है चाहे उसमें कितनी भी रचनाधर्मिता क्यों न हो ? शराब सेवन से जब व्यक्ति की संवेदनहीनता चरम पर पहुँच जाती है तो वह दैत्य का रूप ले लेता है. उस खास व्यक्ति की वाणी मधुर अवश्य हो जाती है परन्तु उस वाणी से वह व्यक्ति जनकल्याण करने की बजाय अपनी महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर ढेर सारे पाप कर्मों को अंजाम देने से भी पीछे नहीं हटता.
यह सब समझकर कबीर ने दुखी मन से उन सभी छद्म बुद्धिजीवियों की संगति छोड दी. तो परिणाम यह हुआ कि जो नौकरी कबीर ने अपने यत्न से अर्जित की थी वह भी बुद्धिजीवियों की राजनीति का शिकार होकर छूट गई. बेचारे दलित कबीर साधनहीन, मित्रहीन और ढेर सारे धर्म के शत्रुओं के मध्य अकेले पड़ गए. मकान मालिक, किरानेवाला, सब्जीवाला उनको ताने देता. पूरे बाजार में कबीर की दरिद्रता का मजाक बनाया जाने लगा. फिर भी कबीर ने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ा.
एक दिन कबीर को शंकराचार्य और बुद्ध मिल गए. वो दोनों लोग मिलकर एक अखबार चलाते थे जिसका नाम था ‘बदलेंगे समाज’, जिसमें बुद्ध मालिक थे और शंकराचार्य संपादक. उन दोनों लोगों ने मिलकर कबीर को अपनी अंतरात्मा में बसा लिया. उनके अखबार को भी कबीर की जरूरत थी और कबीर को भी उनके साथ की. सत्य के यात्रियों का संगम हुआ. तब कबीर को पता चला कि सत्संग में ही सदगुरु निहित हैं. फिर कबीर ने कहा:
मानव खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर
हर मानव से दोस्ती और हर दानव से बैर
- अभिषेक मानव 9818965667

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