न तोपों से डरे हैं हम, न तलवारों से डरते हैं
तेरी तिरछी नज़र के हम फ़कत वारों से डरते हैं।
तड़प से चाहने वालों की, रौनक उन पे आती है
हम ऐसी नाज़नीनों के तलब गारों से डरते हैं।
बजट के नाम पर काटे जो गर्दन आम जनता की
कचूमर जो निकाले, ऐसी सरकारों से डरते हैं।
अलिफ़ तहज़ीब की जिनके कभी ना पास आई हो
लतीफ़ेबाज़ जो होते, वो फ़नकारों से डरते हैं।
पहले जाल में फांसे, बना कर बात मीठी जो
कहे मक़बूल हम ऐसे मददगारों से डरते हैं।
मृगेन्द्र मक़बूल
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