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Sunday, February 13, 2011



मित्रो मैं एक लम्बे भारत दर्शन के बाद लौटा हूं।
भोपाल, हैदराबाद तथा इलाहाबाद में बाल विकास भारती की नई शाखाएं स्थापित कीं, और बैंगलोर में एक पुरानी शाखा को तरोताजा किया।

आगरा में बाबू गुलाब राय स्मृति सम्स्थान द्वारा सम्मान प्राप्त किया; और आगरा तथा अलीगढ के इंजीनियरी कालैजों में 'पेज थ्री वर्सैस चैप्टर थ्री' विषय पर व्याख्यान दिये। यह विषय पश्चिमी भोगवाद तथा भारतीय त्यागमय भोग का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। दोनों कालैजों में इस दुर्लभ ज्ञान को विध्यार्थियों तथा शिक्षकों द्वारा बहुत अधिक सराहा गया।

इस समय इकट्ठे हो गए कार्य को निबटा रहा हूं। भारत की सर्वाधिक भयंकर समस्या पर एक लेख प्रस्तुत कर रहा हूं:


मातृभाषा में ही विज्ञान शिक्षा भारत की रक्षा कर सकती है

(मातृभाषा से इंगित उन अधिकांश मातृभाषाओं से है जिनमें आधुनिक विज्ञान के सम्प्रेषण की क्षमता है)

मानव व्यवहार और संस्कृति का गहरा संबन्ध है, इसलिये अपराध का और संस्कृति का गहरा संबन्ध है।बढ़ते पैशाचिक अपराध निश्चित दर्शाते हैं कि हमारी संस्कृति तेजी से भ्रष्ट हो रही है। आज राक्षसी अपराध कुछ अशिक्षित या दोषी वातावरण में पले लोगों तक ही सीमित नहीं है; वह अब शिक्षित, धनी तथा सामान्य लोगों में भी तेजी से फैल रहे हैं। ऐसे भोगवाद के राक्षसी आक्रमण से भारत की रक्षा करना हमारा परम कर्त्तव्य हैं।

समाज में प्रचलित सम्प्रेषण के माध्यम, शिक्षा तथा संस्कृति में गहरा संबन्ध है। एक ओर हमारी भाषाएं और उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान हमारी संस्कृति लाती हैं, तो दूसरी ओर अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा हमारे मातृभाषा के प्रेम को हटाकर अंग्रेजी प्रेम ला रही है, और अंग्रेजी भाषा तो अधकचरी पाश्चात्य संस्कृति ला रही है। दुर्भाग्य ही कहें कि आज घरों में संस्कृति की शिक्षा माता पिता नहीं वरन मूर्ख डिब्बा टीवी दे रहा है। दृष्ट तथा श्रव्य दोनों माध्यमों द्वारा परोसी गई सामग्री को परखकर स्वीकारने तथा नकारने की क्षमता ज्ञान तथा जीवन मूल्यों से आती है, जो बच्चों को नहीं मिल रहे हैं। अतः समाज में बुराई तथा अच्छाई के बीच चुनाव का विवेक लुप्त हो रहा है। इसलिये यह दोनों माध्यम यौन तथा हिंसा के साथ भोगवाद का जबर्दस्त प्रचार कर, समाज पर पड़ रहे दुष्प्रभाव को नज़र अंदाज़ करते हुए करोड़ों रूपये कमा रहे हैं। दर्शक टीवी में परोसे गए भोगवादी व्यवहार की नकल कर मॉडर्न बनना चाहता है। वह करोड़पति बनने के लिये लूटपाट, फिरौती तथा हत्याएं सहर्ष करता है, और यौनसुख के लिये भोली भाली लड़कियों का बलात्कार करता है। माध्यम तथा अंग्रेजी भाषा द्वारा लाये गये इस भोगवाद के कारण आज इंडिया में कोई भी घर तथा कोई भी लड़की या बच्चे सुरक्षित नहीं हैं। हमारी त्यागमय भोग अर्थात मानवीयता की संस्कृति पीछे छूट गई है।

स्वतंत्रता के बाद भौतिक विकास हमारा उद्देश्य बना। किन्तु यह मान लिया गया कि अंग्रेजी के बिना विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की शिक्षा दी ही नहीं जा सकती, ऐसी सोच ही गुलामी की सोच है। 1960 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक कोठारी की अध्यक्षता में भाषा समिति ने गहरे मनन के बाद निष्कर्ष दिया था कि विज्ञान के प्रसार के लिये विज्ञान की शिक्षा मातृभाषाओं में ही देना होगा। वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना 1961 में इसी उद्देश्य से की गई थी कि वह हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं में समुचित शब्दों का निर्माण करे। 1973 तक उसने पर्याप्त शब्दों का निर्माण कर लिया था जो विज्ञान में महाविद्यालय तक की शिक्षा देने के लिये सक्षम थे। 2006 तक उसने बारह लाख वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दों का निर्माण कर लिया है, और यह उत्तम कार्य सतत चल रहा है। किन्तु शासन की अंग्रेजीभक्त नीतियों के कारण हिन्दी तथा अन्य भाषाएं दुर्बल हो रही हैं और अंग्रेजी मोटी हो रही है।

हमें अंग्रेजी भाषा अवश्य सीखना चाहिये, किन्तु एक अतिरिक्त उपयोगी भाषा की तरह, न कि अपनी भाषाओं की कीमत पर। संस्कृति के भ्रष्ट होने के अतिरिक्त अंग्रेजी में जीवन जीने की दो महत्वपूर्ण हानियां और हैं।एक तो हम सीखी गई विदेशी भाषा में अनुसंधान तथा सृजन उतनी कुशलता तथा उत्कृष्टता से नहीं कर सकते जितना अपनी मातृभाषा में आत्मसात किये ज्ञान के द्वारा। तभी इज़राएल जैसा देश जिसकी आबादी हमारी आबादी के एक प्रतिशत से भी कम है, विज्ञान में ग्यारह नोबेल पुरस्कार ले चुका है – हमारे एक के स्थान पर । इज़राएल जो 1948 में जन्मा और उसने हिब्रू को राष्ट.भाषा बनाया जो किसी भी देश की भाषा नहीं थी। योरोपीय देशों को तो छोड़ ही दें, अपनी भाषाओं में कार्य करते हुए जापान, चीन, कोरिया भी वैज्ञानिक प्रपत्रोंं, पीएचडी, अनुसंधानों आदि में हमसे आगे हैं और समृद्धि में भी। आर्थिक समृद्धि तथा आर्थिक स्वतंत्रता आज विज्ञान – प्रौद्योगिकी की समृद्धि पर निर्भर करती है। अर्थात अंगे्रजी की गुलामी हम जिस उद्देश्य से कर रहे हैं वह भी पूरा नहीं हो सकता। और विडम्बना है कि इस भोगवादी नशे में कोई इस सरल सत्य को भी नहीं समझना चाहता !

अंग्रेजी में जीवन जीने की दूसरी हानि यह है कि सोच में हम मौलिक नहीं रह पाते, क्योंकि हम पश्चिम की अंधी नकल करते रहते हैं। उदाहरणार्थ हरितक्रान्ति जैसी महत्वपूर्ण घटना ने पश्चिम को लाभ अधिक और नुकसान कम पहुँचाया है जब कि हमें नुकसान अधिक और लाभ कम। हरितक्रान्ति के कारण आज हमारी मिट्टी और जल दोनों जहरीले हो गये हैं, भूमिगत जल घट गया है। अब हम विश्व में बीमारियों में अग्रणी पंक्ति में आ गये हेैं। जब कि हमें उनकी अंधी नकल करने की आवश्यकता कतई नहीं थी क्योंकि हमारे पास श्रेष्ठ उर्वरक – गोबर – मौजूद थाऌ और श्रेष्ठ कीटनाशक – नीम, हींग आदि। हमें इन्हीं पारम्परिक संसाधनों के आधार पर आधुनिक खोज करना चाहिये। जब तक अंग्रेजी हमपर राज्य करेगी हमारी सोच भी उनकी गुलामी करेगी।

यदि हम विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में नहीं देते तब एक तो हम विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में पिछडे. रहेंगे और दूसरे हमारी भाषा ओैर संस्कृति भी दुर्बल होती जाएगी। आज भाषा का मुख्य सृजन उन क्षेत्रों में हो रहा है जिन में अनुसंधान तथा शोध अधिक हो रहे हैं। अर्थात भाषा का सर्वाधिक निर्माण विज्ञान – प्रौद्योगिक क्षेत्र में हो रहा है। जो भी भाषा विज्ञान – प्रौद्योगिक क्षेत्र में पिछडी. रहेगी उस पर अंग्रेजी छा जायेगी और दुर्बल से दुर्बलतर होती जायेगी। आज के विज्ञान – प्रौद्योगिकी के जमाने में यदि हमें आर्थिक स्वतंत्रता बना कर रखना है तब विज्ञान – प्रौद्योगिकी में हमें विश्व में अग्रिम पंक्ति में रहना होगा जिसके लिये विज्ञान की शिक्षा का मातृभाषा में होना आवश्यक है।

किसी भी भाषा की समृद्धि के लिये समृद्ध साहित्य अत्यावश्यक तो है, किन्तु आज के समय में पर्याप्त नहीं है ! किसी भी देश की मूल संस्कृति की रक्षा के लिये उसकी सांस्कृतिक अर्थात मातृभाषा आवश्यक है। हमारी संस्कृति उदात्त तथा मानवता की पोषक है न कि अन्य संस्कृतियों की तरह शोषक। अपनी संस्कृति का और इसलिये अपनी समृद्ध मातृभाषाओं का बचाना तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में अग्रिम पंक्ति में रहना, न केवल हमारी अस्मिता के लिये वांछनीय है वरन मानवता की रक्षा के लिये भी आवश्यक है। विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में ही हो।


विश्वमोहन तिवारी, एयरवाइस मार्शल (से .नि .)



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