Search This Blog

Monday, March 21, 2011

प्रशांत योगी होने का अर्थ


प्रशांत योगी होने का अर्थ
जब कोई शब्द में मंजता है तो अभिव्यक्ति में वह जागता है। और जब कोई जाग जाता है तो  उसका हर कार्य पूरी चेतना और समर्पण के साथ होता है। वह अपने कृत्य में फिर पूरी तरह मौजूद होता है। और जो कृत्य में पूरी तरह मौजूद होता है तो फिर ऐसे साधक का कृत्य ही प्रार्थना बन जाता है। तब भोजन भी भोग बन जाता है, प्रसाद बन जाता है। उसका दरी बुनना भी कविता हो जाता है। उसका नौकरी करना भी दिव्य लीला बन जाता है। कबीर ने कहा है मैं उठूं-बैठूं सो परिक्रमा। जिसके पास बैठने में बोध जागता है। तब व्यक्ति उपवास करता नहीं है स्वयं उपवास में स्थित हो जाता है। वह बोलता है तो सुननेवाले की चेतना में वेद खुलने लगते हैं। उपनिषदों की बारिश में उसका तन-मन भींग जता है। उसकी वाणी तब तथागत भी होती है और तत्वगत भी। तब समय के पास होते हैं हम। और ये समय घड़ी की दीवारों और पाबंदियों की इल्मभरी दीवारों में कैद होनेवाला समय नहीं होता है। ये समय के बाहर का समय होता है। जो ध्यान की प्रशांति में ही प्रकट होता है।  महर्षि अरविंद ने जिसे देवताओं के जागरण से पहले का समय कहा है। वेदों ने जिसे नान्यस्त कहा है। जहां नींद के घर में जागरण विश्राम पाता है। जहां सपनों के नर्म-नाजुक घरों में जाग्रति आंखें मलते हुए कुनमुनाती है। मार्कंडेय पुराण में इसे ही विष्णु की योगनिद्रा कहा गया है। जहां भिन्न भी अभिन्न है। मन के अथाह सागर में सपनों की नाग शैया पर जहां विष्णुवत विश्राम मुद्रा में लेटी हुई चेतना सारी सृष्टि को निहारती है। ऐसी चेतना जो मौन में और प्रामाणिक हो जाती है। जिसके अस्तित्व को समझाया नहीं जा सकता। स्वयं अपने बोध से ही जिसे समझा जा सकता है। क्योंकि इसके महसूसने के बीच कोई तर्क खड़ा नहीं होता है। धूप को समझाया नहीं जा सकता,खुशबू की कोई व्याख्या नहीं की जा सकती। इसे तो महसूस ही कर सकते हैं। कुछ ऐसी ही शख्सियत है,जिसके अशरीरी अहसास को, पाकर ही जाना जा सकता है। जिसके प्राणों की शाला में धर्म आध्यात्म को गाता हो, जिसके धर्म की धमनियों में शाला उदगीथ उचारती हो। ऐसी धर्मशाला जो शब्दों के इस साधक के पावन आवास से मनुष्यता का जाग्रत शक्तिपीठ बन गई हो..उस शांत-प्रशांत योगी के होने का अर्थ आप्तवाणी में ही व्यक्त हो सकता है।. जोकि शब्दों के पार मौन की पश्यंती में बतियाती है। पर मौन को सुनने का शऊर कितनों के पास होता है। जितनों के पास है वो मेरा अभिप्राय समझ ही गए होंगे।
पंडित सुरेश नीरव

No comments: