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Wednesday, March 16, 2011



नीरव जी और अन्य मित्रों जगदीश परमार जी तथा ओ चाण्डाल जी का धन्यवाद कि उऩ्होंने लमार्क तथा डार्विन संबन्धी मेरी टिप्पणी पढ़ी, और टिप्पणि को आगे बढ़ाया। किसी को इतने मह्त्वपूर्न विषय पर रुचि तो हुई। धन्यवाद।
यह् तो अनीता गोयल के अनुसंधान कार्य के बाद लामार्क के सिद्धान्त में कुछ प्राण से जागने का प्रयास कर रहे हैं, वर्ना वह तो वैज्ञानिकों द्वारा खारिज किया जा चुका था।

यूज़ एन्ड डिसयूज़ का सिध्धान्त ही तो गलत सिद्ध किया जा चुका है।

डीएनए में उत्परिवर्तन होते रहते हैं, वे उत्परिवर्तन जो अतिजीविता बढ़ाते हैं,सफ़ल होते हैं और उस जाति में आत्मसात कर लिये जाते हैं। जिराफ़ के वे उत्परिवर्तन जिनसे उसकी गर्दन लम्बी हुई, सफ़ल हुए, चाहे वह उनका उपयोग करे या न करे ।
जिराफ़ों की संतानें पर संतानें रखी गईं जिसमें उनकी‌लम्बी गरदन का कोई विशेष उपयोग नहीं हुआ, गरदनें वैसी‌ही रहीं। चूहों की पूँछें ५० संततियों तक काटी गई किन्तु वे हमेशा उतनी ही लम्बी पूँछ लिये पैदा होतेगए , इस तरह के अनेक प्रयोगों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि लामार्क का सिद्धान्त सही‌नहीं है।
यह तो डीएनए का ही वातावरन है जो उस पर असर डालता है और उत्परिवर्तन पैदा करता है, अत: डार्विन का ही सिद्धान्त लग रहा है। डार्विन यही तो कहते हैं कि डीएनए के बदलने से आनुवंशिकता पर प्रभाव पड़ सकता है।
यह ठीक है कि मैंडैल ( मैण्डिलीफ़ नहीं) ने आनुवंशिकी पर कार्य किया था, और उसका दुर्भाग्य कि वह बरसों उपेक्षित पड़ा रहा।
धन्यवाद
शुभ् कामनाएं

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