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Thursday, March 31, 2011

मक़बूल कहलाने का गुनहगार हूँ मगर

आज कई दिनों बाद ब्लॉग पर आने का मौका मिला है। ब्लॉग ट्विटर पर तो पहले से ही था, अब फेसबुक पर भी आ गया। जान कर बेहद प्रसन्नता हुई। साथ ही काफी नए साथी भी ब्लॉग पर नज़र आ रहे हैं। सभी नए मित्रों का अभिनन्दन करताहूँ। साथ ही इस उपलब्धि के लिए प० सुरेश नीरव को हार्दिक बधाई। उनके अनथक प्रयास का ही ये परिणाम है। सभी पुराने मित्रों का सलाम, पालागन। आज एक नई ग़ज़ल पेश हैमक़बूल कहलाने का गुनहगार हूँ मगर गुमनाम जो रहे तो ग़ज़ब कौन सा किया। टेबल पे कई जाम थे, अंदाज़ अलग थे हम को तो ये भी याद नहीं, कौन सा पीया। चुभ चुभ के उँगलियों पे मेरे सिर्फ लहू था हमने लिबासे- ज़िन्दगी, कुछ इस तरह सीया। ज्यों रेल की खिड़की से मुसाफिर तके दुनिया हमने तो ज़िन्दगी को महज़ इस तरह जीया। मक़बूल दे रहे थे अंगूठी, गले का हार उसने सभी को छोड़ दिया, सिर्फ दिल लिया. मृगेन्द्र मक़बूल

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