

दिन चढेगा तू आगे बढेगा
रोशनी के लिए लड़ेगा
खून का घूँट पीना पड़ेगा
अब अगर दिन ढल गया
और तू कुछ न कर सका
तुझे जो मिली नयी ज़िंदगी
उसको तू व्यर्थ कर गया ! दिन तो ढलेगा
गर मर-मर के तू जिएगा
हर बार एक आंसू व्यर्थ ही बहेगा !!
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आत्मीय मंजुऋषि..
आपकी रचना बहुत संवेदनशील और अर्थपरक है।ऐसी रचनाएं मन में आशा की एक किरण जगाती हैं और नया विश्वास देती हैं जीने का। आप मन हो जो मन की आंखों से सबके मन में झांकने की कुव्वत रखता है। मेरे स्नेह..
डॉक्टर प्रेमलता नीलम
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