
दिन-ब-दिन घाव गहरे हुए
पीर के पल सुनहरे हुए
स्वार्थवश लोग अंधे बने
स्वार्थवश लोग बहरे हुए
एक से काम चलता न था
उनके चेहरों पे चेहरे हुए
तन को बंधक बनाने के बाद
रूप के मन पे पहरे हुए
अच्छे दिखते हैं झंडे तभी
जब निकलते हैं फहरे हुए
भीड़ चलती है चींटी की चाल
लोग लगते हैं ठहरे हुए
शेर अख़बार पढ़कर...कहे
कथ्य यूँ भी इकहरे हुए !
अंग प्रत्यंग को हिला डाला
यात्रा ने बहुत थका डाला
बर्फ-से आदमी को भी आखिर
व्यंग्य-वाणों ने तिलमिला डाला
काल ने सागरों को पी डाला
काल ने पर्वतों को खा डाला
फिर वो क्यों रोज याद आती है
मैंने जिस शक्ल को भुला डाला
एक तीली दिया जलाती है
एक तीली ने घर जला डाला
स्वप्न में भी न कल्पना की थी
वक्त ने वो भी दिन दिखा डाला
अंतता: आँख डबडबा आई
उसने इतना अधिक हँसा डाला
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