ग़ज़ल-
है बड़ा ही मुख़्तसर संसार मेरे इश्क का |
फ़ोन पर चलता है कारोबार मेरे इश्क का ||
रूबरू मिलने के इमकानात, थोड़े तंग हैं |
ख्वाब में मुमकिन फक़त दीदार मेरे इश्क का ||
उसकी खुशबू से महकती है मेरे दिल की फ़िज़ा |
उसके दम से है चमन गुलज़ार मेरे इश्क का ||
बिला नागा रोज ही मिस्कॉल, मैसेज, गुफ्तगू |
रोज़ ही सजता है ये बाज़ार, मेरे इश्क का ||
मकाम-ए-महफूज़ बतियाने का मिलता ही नहीं |
इम्तहां होता है यूँ हर बार, मेरे इश्क का ||
बालाखाना, छत, सहन, गैरेज, लॉबी, टॉइलेट |
घर का हर कोना गवाह-ए-यार, मेरे इश्क का ||
कान उसकी बात पर, आँखें मगर चारों तरफ़ |
हो न जाए किसी पर इज़हार, मेरे इश्क का ||
चार्ज और रीचार्ज मांगे रोज़ मेरा सेलफोन |
ये भी है मेरी तरह बीमार, मेरे इश्क का ||
घर में डर बीवी का, और ऑफिस में खूसट बॉस का |
रास्ता है बारहा दुश्वार, मेरे इश्क का ||
लग गयी इसकी भनक, बेग़म के कानो को अगर |
सोलह आने तय है बंटाढार, मेरे इश्क का ||
मैं तुम्ही से पूछता हूँ, दोस्तों, कुछ तो कहो ?
किस तरह मुमकिन है, बेडा पार, मेरे इश्क का ||
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- सुरेश ठाकुर
है बड़ा ही मुख़्तसर संसार मेरे इश्क का |
फ़ोन पर चलता है कारोबार मेरे इश्क का ||
रूबरू मिलने के इमकानात, थोड़े तंग हैं |
ख्वाब में मुमकिन फक़त दीदार मेरे इश्क का ||
उसकी खुशबू से महकती है मेरे दिल की फ़िज़ा |
उसके दम से है चमन गुलज़ार मेरे इश्क का ||
बिला नागा रोज ही मिस्कॉल, मैसेज, गुफ्तगू |
रोज़ ही सजता है ये बाज़ार, मेरे इश्क का ||
मकाम-ए-महफूज़ बतियाने का मिलता ही नहीं |
इम्तहां होता है यूँ हर बार, मेरे इश्क का ||
बालाखाना, छत, सहन, गैरेज, लॉबी, टॉइलेट |
घर का हर कोना गवाह-ए-यार, मेरे इश्क का ||
कान उसकी बात पर, आँखें मगर चारों तरफ़ |
हो न जाए किसी पर इज़हार, मेरे इश्क का ||
चार्ज और रीचार्ज मांगे रोज़ मेरा सेलफोन |
ये भी है मेरी तरह बीमार, मेरे इश्क का ||
घर में डर बीवी का, और ऑफिस में खूसट बॉस का |
रास्ता है बारहा दुश्वार, मेरे इश्क का ||
लग गयी इसकी भनक, बेग़म के कानो को अगर |
सोलह आने तय है बंटाढार, मेरे इश्क का ||
मैं तुम्ही से पूछता हूँ, दोस्तों, कुछ तो कहो ?
किस तरह मुमकिन है, बेडा पार, मेरे इश्क का ||
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- सुरेश ठाकुर
ये माना अजनबी हो तुम , मगर अच्छी लगी हो तुम
तुम्हीं को सोचता हूँ मैं , मेरी अब जिंदगी हो तुम
ख़ुदा ने सिर्फ़ मेरे वास्ते तुमको बनाया है
मैं इक प्यासा समंदर हूँ और इक मीठी नदी हो तुम -
तुम्हीं को सोचता हूँ मैं , मेरी अब जिंदगी हो तुम
ख़ुदा ने सिर्फ़ मेरे वास्ते तुमको बनाया है
मैं इक प्यासा समंदर हूँ और इक मीठी नदी हो तुम -
- नित्यानंद `तुषार`
कुत्ता और आदमी
एक आदमी रोटी बनाता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक आदमी रोटी से खेलता है
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी सेकता है
और एक आदमी रोटी से तमाम उम्र झेलता है !
पर यही रोटी
इन्सान को भगवान बनती है
यही रोटी शैतान को इन्सान बनाती है
यही रोटी इन्सान को हैवान बनाती है
पूरी सृष्टि रोटी में समायी है
कन्हैया को भी नाच नचाई है
पर रोटी में बसता
दिल अपना और प्रीत पराई है
रोटी से तो कुत्तो में भी लड़ाई है
पर वफ़ादारी उसने दिखाई है
और आदमी ने हमेशा पीठ दिखाई है
अब आदमी और कुत्ता में
सम्मान की लड़ाई है
योगी नजर ने हमेशा
कुत्ते की जीत पाई है
कुत्ते और आदमी में
अभी बहुत दूर है आदमी
कुत्तों की वफ़ादारी से ईमानदारी से !
ईमानदार नहीं तो कुत्तों सा
वफादार बनिए इन्सान बनिये
शर्म हो तो इन कुत्तों से कुछ सीखिए !
यह कविता क्यों ? आदमी वह है जो खुद सोचे की वह कहाँ है ? रोटी खाने और खिलाने के फर्क को समझिये !
यह कविता भारतीय कूटनीति राजनीती के पुरोधा अन्ना हजारे जी को ह्रदय से समर्पित
एक आदमी रोटी बनाता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक आदमी रोटी से खेलता है
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी सेकता है
और एक आदमी रोटी से तमाम उम्र झेलता है !
पर यही रोटी
इन्सान को भगवान बनती है
यही रोटी शैतान को इन्सान बनाती है
यही रोटी इन्सान को हैवान बनाती है
पूरी सृष्टि रोटी में समायी है
कन्हैया को भी नाच नचाई है
पर रोटी में बसता
दिल अपना और प्रीत पराई है
रोटी से तो कुत्तो में भी लड़ाई है
पर वफ़ादारी उसने दिखाई है
और आदमी ने हमेशा पीठ दिखाई है
अब आदमी और कुत्ता में
सम्मान की लड़ाई है
योगी नजर ने हमेशा
कुत्ते की जीत पाई है
कुत्ते और आदमी में
अभी बहुत दूर है आदमी
कुत्तों की वफ़ादारी से ईमानदारी से !
ईमानदार नहीं तो कुत्तों सा
वफादार बनिए इन्सान बनिये
शर्म हो तो इन कुत्तों से कुछ सीखिए !
यह कविता क्यों ? आदमी वह है जो खुद सोचे की वह कहाँ है ? रोटी खाने और खिलाने के फर्क को समझिये !
यह कविता भारतीय कूटनीति राजनीती के पुरोधा अन्ना हजारे जी को ह्रदय से समर्पित
अरविन्द योगी १२/०४/२०११
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