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Wednesday, May 4, 2011
तुम बुलाना चाहते थे, आगया मैं
तुम बुलाना चाहते थे, आगया मैं.
जारहाथा, किन्तु पग उठते नहीं थे।
देह मुड़ती पर नयन मुड़ते नहीं थे।
ज़ब्र अपने पर किये मैं चल दिया था।
मैं चला था, पर ह्रदय रुक सा गया था।
डाल से तोड़ा गया हो जो वृथा ही,
एक कोमल फूल सा मुरझा गया मैं।
तुम बुलाना चाहते थे, आगया मैं।
बादली सा आ ह्रदय पर छा गया मैं।
अधर थे चुप, कह रहा था मन, 'न जाओ'।
थीं घटाएं मौन कहती सी, 'न जाओ'।
रोकतीं थी पंथ बूंदें भी टपक कर,
टोकती थी बिजलियाँ मानो कड़क कर।
पर हवाएं थी, उड़ाने पर तुली थीं,
था ह्रदय भारी ,मगर उड़ता गया मैं।
तुम बुलाना चाहते थे आगया मैं।
लाज की बाधा न वाणी लांघ पाई।
चाहती थी ,तुम न फिर भी रोक पाई ।
थे सबल संकेत ,पर पलकें प्रबल थीं,
झुक गयी जो पुतलियों पर, सींच ,जल थीं ।
समय था मानों समंदर बन गया था।
हर निमिष तट से परे होता गया मैं।
तुम बुलाना चाहते थे आगया मैं।
और फिर मानों कि धरती रुक गयी थी।
ह्रदय के आगे प्रकृति भी झुक गयी थी ।
एक पल रुक पवन ने बदली दिशा थी ।
इधर आशा दीप था, मधुमय निशा थी।
फिर मिलन के गीत गाता ,मुस्कुराता,
गीत बन तेरे अधर पर छागया मैं ।
तुम बुलाना चाहते थे आगया मैं ।
बादली सा आ ह्रदय पर छागया मैं ।
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