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Wednesday, May 18, 2011

कितनी कटी हराम में, कितनी हलाल है

कितनी कटी हराम में, कितनी हलाल है
ये ज़िन्दगी भी जैसे गणित का सवाल है।

लिक्खेगा झूठ,देगा सदाक़त का फैसला
जादू हैं उसके शब्द, क़लम में कमाल है।

बेटे को बेच आज जो लाया है एक कार
वो आदमी पिता नहीं, वो तो दलाल है।

आंसू के साथ प्यार की ख़ुशबू लिए हुए
दिल के क़रीब जेब में उसका रुमाल है।

जो गिर गया था रेल से, अनजान ही तो था
मैं उस से बहुत दूर था, इसका मलाल है।

उस को अँधेरी रात सताती नहीं कभी
जिस आदमी के हाथ में जलती मशाल है।
प्रकाश मिश्र
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मक़बूल

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