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Friday, June 3, 2011

उनके मन में भी रक्त शुद्धि का भाव कहीं अंकुराता तो है।


संपादकीय-
पूर्वजों की धरोहर और जींस की रक्षा
 बंधुवर पालागन।
आज आपके सामने समाधान का यह अंक जो कि अपने आप में माथुर चतुर्वेदी सभा दिल्ली का तृतीय,समाज द्वारा आयोजित कार्यक्रमों की कड़ी में चतुर्थ( श्री भदावर चतुर्वेदी उत्थान समिति,बाह) और पुस्तिका के रूप में पंचम प्रकाशन है।
यह अंक समाजरूपी सरोवर में उपस्थित मानस हंसों के प्रेम और वैचारिक चिंतन का एक ऐसा पुष्प है जो कि समाज के उन लोगों की मलिन चेतना के बीच से निकलकर खिला है जो आत्म केन्द्रित हैं और स्वार्थ को ही अपने जीवन का दर्शन मान बैठे हैं। समाधान समाज की रक्त शुद्धिता को समर्पित एक महत्वपूर्ण संस्कार-अभियान है। इसके माध्यम से समाज के उन लोगों को भी हम रेखांकित करना चाहते हैं जो कि महत्वपूर्ण अवसरों पर इस शब्द के प्रयोग से किन्ही विवश कारणों से सप्रयास परहेज रखते हैं मगर उनके मन में भी रक्त शुद्धि का भाव कहीं अंकुराता तो है। फिर भले ही वे इस भाव का रूपांतरण समाज के परंपरागत भोजन खीर-झोर में करके आत्म संतुष्ट हो जाते हों। मगर इस प्रयास में अपने सारे पूर्वाग्रहों को भुलाकर उन्होंने इस प्रयास में सहयोग किया है,हम पत्रिका के माध्यम से उनका भी हृदय से आभार व्यक्त करते हैं।
निश्चित ही आज के समय में रक्त शुद्धि के सिद्धांत पर चलना एक कठिन डगर पर चलना है किंतु संपादक के रूप में मैं अपने पूज्य पिताश्री त्रिवेणी सहायजी (तालगांव) के द्वारा दी गई प्रेरणा को आप सभी के मध्य अवश्य बांटना चाहता हूं। उनके शब्दों में- अच्छाई हमेशा धनात्मक  अनुपात में बढ़ती है वहीं बुराई गुणात्मक अनुपात में बढ़ती है। मैं एक किसान का पुत्र हूं। मुझे याद आता है कि पिताजी ने एक जगह फिर उदाहरण देते हुए  हमें समझाया था कि जो फसल जितनी जल्दी पैदा होती है वह उतनी ही जल्दी खत्म भी हो जाती है। संख्या की दृष्टि से भी असंख्य वृक्षों के मुकाबले उन वनस्पति प्रजातियों को ज्यादा संघर्ष झेलने पड़ते हैं जो संख्या में कम होते हैं। मगर पशुओं के चारे और  पशुवत मनुष्यों द्वारा दातून तक के उपयोग के लिए काटे जाते रहने के बावजूद वे मनुष्य को छांव और फल देने के लिए खड़े ही रहते हैं। एक आम के बाग की तरफ इशारा करते हुए पिताजी ने कहा था कि- याद नहीं आता कि इन आम्र वृक्षों को किसने लगाया था। तय है कि बेटा तुम्हारे बाबा ने भी इन्हें नहीं लगाया था लेकिन आज हमारी पीढ़ी इनके फलों से लाभान्वित हो रही है। तय है कि इन वृक्षों को भी शुरूआत में तमाम संघर्ष झेलने पड़े होंगें। सन 2008 में आयोजित कार्यक्रम में हमारे युवा साथी अमित चतुर्वेदी ने निष्काम कर्म के महत्व पर अपने अनुभव के आधार पर काफी प्रकाश डाला था। इस प्रसंग के माध्यम से मैं विचार के इस महत्वपूर्ण बिंदु पर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं। आइए हम सब विचार करें कि अपने-अपने प्रकार से हम समाज के लिए हर संभव योगदान करें। चाहे अंत्योदय योजना के रूप में,शिक्षा के लिए आर्थिक सहयोग के रूप में,सामूहिक विवाह आदि के लिए आर्थिक मदद के रूप में हो। कुछ लोग इस भावना को भी आत्म प्रचार का जरिया बना लेते हैं और मंहगी पांचसितारा होटल में बैठकर यह सामाजिक कार्य भी अपने वैभव प्रदर्शन के लिए ही करते हैं। और रक्त-शुद्धि का मूल उद्देश्य वे भुला देते हैं। सोचिए यदि रक्त ही अशुद्ध हो गया तो उसे बाहरी मलहम और क्रीम के द्वारा हम कैसे शुद्ध कर पाएंगे। निश्चित ही इसके लिए यदि कड़वी दवा का भी प्रयोग करना पड़े तो हमें उससे परहेज नहीं करना चाहिए। हम यह कहकर कि जब आज दुनिया में हवा और पानी तक अशुद्ध हो गए हैं तो ऐसे दौर में रक्त शुद्धि की बात फिर क्या अर्थ रखती है। मैं इस संबंध में कहना चाहूंगा कि प्रदूषित नदियों की शुद्धि की जरूरत भी अब महसूस की जाने लगी है। तब हम एक लचर तर्क के बल पर इस मुद्दे को यूं ही तो नहीं छोड़ सकते। सभी जानते हैं कि तमाम मीठी नदियां समुद्र में विलीन होकर भी समुद्र का खारापन समाप्त नहीं कर पाती हैं। मगर वे अपना मार्ग नहीं छोड़तीं। रास्ते में तमाम गंदे नालों की गंदगी ढोकर भी ये नदियां अपना प्रवाह और प्राणियों को मिठास से भरा पानी देने की अपनी मूल प्रवृति को नहीं छोड़ती हैं। तो फिर हम कैसे शुद्धता के महत्व को नज़रअंदाज कर सकते हैं।
अतः आप सबसे अनुरोध है कि एक भागीरथी को प्रवाहित करने का विचार अपने मन में लाकर  इस आई हुई गंदगी के छिद्रान्वेषण में शक्ति और समय को व्यर्थ नष्ट न करते हुए आपस में मिलकर अपने पूर्वजों की धरोहरॉ और अपने जींस की रक्षा के लिए सामूहिकरूप से संकल्पबद्ध हों। इसी आव्हान के साथ..
-आपका
हीरालाल पांडे
संपादकः समाधान

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