कारगिल विजय दिवस पर विशेष ..............
कारगिल के बाद........तुमनें शीश झुकाया हमनें, माफ़ किया और छोड़ दिया
अबकी बार समर का रास्ता ,अमन के रस्ते मोड़ दिया
अबकी बार न ऐसा होगा ,दुस्साहस ना करना तुम
खुली चुनौती देता हूँ ,मेरे शब्दों से डरना तुम
अबकी बार उठाया सर गर , सर धड से कट जाएगा
अपना नहीं रहेगा कोई, जो दफनाने आयेगा
हम हिम माला के निर्झर, जिस पल हिलोर में आएंगे
दुश्मन की धरती पर जाकर , प्रलय दूत बन जाएंगे
कुटिल उम्मीदों पर पानी, फिर फिरेगा फिर से भागोगे
डूब मरोगे पानी में , और पानी तक ना मांगोगे
राजनीति की महत्वाकांक्षाओं की बलि चढोगे तुम
हिन्दुस्तानी सेनाओं से , आकर अगर लड़ोगे तुम
हम गौतम के वंशज है , हम पार्थ श्रेष्ठ धनुधारी है
महावीर से प्रेम पुजारी, शिव से प्रलयंकारी है
हम लाठी वाले हाथों में , जब संगीन उठाते है
दुनिया देख चुकी गांधी से, आंधी हम हो जाते है
क्या खाकर सह पाओगे, आंधी के विकट थपेड़ों को
भुगत चुके है जो पहले, पूछो उन बूढ़े पेढों को
बतलायेंगे वही, जिन्होंने कल हथियार गिराए थे
आत्मसमर्पण किया ,हमारे सम्मुख शीश नवाए थे
कायर कोखों में पलकर कहीं , शेर कोई हो पाता है
गीदड़ से पैदा होने वाला गीदड़ कहलाता है
गीदड़ हो तुम, गीदड़ की ही खाल में रहकर बात करो
आत्मघात है शेर से लड़ना, ऐसे न अवदात करो
आत्मघात करने वालो हमसे क्यूँ लड़ने आते हो
चुल्लू भर पानी में क्यों ना डूब के तुम मर जाते हो
अबकी बार समझ लो सीधी बात जो घात लगाओगे
खुद का और वजूद पाक का सांस तोड़ता पाओगे
मेरे नहीं है , वाणी में जो , कण बारूदी आए है
मैंने तो एक सैनिक के दिल के उदगार सुनाए है
युद्ध बंद होने का जब संदेशा दिल्ली से आया
मन में टीस लिए सैनिक था ,सीमा पर मुस्तैद खडा
एक-एक पल समर का ,यादों के दर्पण में देख रहा
देख रहा सरहद पर अब तक ,निशाँ खून के ताज़े है
कण -कण से अब भी जय हिंद की, गूँज रही आवाजें है
लहू हुआ लावा जब लिखने बैठा खुनी पाती वो
मसि बनाया रक्त शहीदी, पाती वसुधा छाती को
एक- एक अक्षर पर उसका वहीँ कलेजा खौल रहा
देख हृदय के भाव उसी पल दिल अम्बर का डौल रहा
रक्त भरी आँखों में उस पल थी बीते कल की यादें
खून की होली खेल रहे, उस मौसम, उस पल की यादें
चित्र सभी चलचित्र की भांति दो आँखों में घूम गए
बलिदानी शव अंतिम क्षण में देश की माती चूम गए
जोशीले वे वीर हिंद के दुश्मन पर चढ़ते जाते
होड़ लगाकर मौत का दामन छूनें को बढ़ते जाते
उस पल आर-पार की अंतिम जंग का ज़ज्बा आया था
प्रतिशोध की ज्वाला ने ,लहू को अंगार बनाया था
आया था तूफ़ान रक्त का, लाल हुई श्यामल माटी
शेरों की आँखों में उस पल ,यम देखा कांपी घाटी
पेड़ों के पत्ते भी उस पल भय खाकर निस्पंदित थे
अचल खड़े हिम पर्वत के सारे पाषाण अचंभित थे
विस्फोटों की गर्मी थी पर बर्फ पिंघलना भूल गई
शोलों के धुंए थे लेकिन सांझ थी ढलना भूल गई
स्थिर हुआ सूरज किन्तु किरणों को ताब न ला पाया
वक़्त रुका ऐसा के पवन का आंचल तक ना लहराया
वातावरण था चुप्पी साधे देख रहा विकराल समर
हिन्दुस्तानी सेना के जांबाजों का वह शोर्य प्रखर
घाव छुपाकर सागर की लहरों से बढ़ते जाते थे
पीड़ा को पीकर साथी से नज़र मिली मुस्काते थे
बीच-बीच में शव गिरते पर टुकड़ी टूट न पाती थी
तन को छोड़ आत्मा टुकड़ी में जाकर मिल जाती थी
नहीं कल्पना सागर मंथन से स्वर ऐसे पाए है
मैनें तो एक सैनिक के दिल के उदगार सुनाए है
आगे बढती सेना के चेहरों पर मातम सा छाया
साथी जो खोये उनका प्रतिशोध न पूरा कर पाए
दिल्ली वालों ने मंसूबे तोड़े ,लौटे घर आए
यारों की वहां चिता सजी थी द्रवित हुआ मन भर आया
एक बार फिर आँखों में बदले का भाव उतर आया
हवन कुंड की अग्नि थी, लपटें थी नहीं चिताओं की
अरुण धधकते अंगारों सी आँखें थी माताओं की
कहती, लगती ,आग जिगर की यूँ ही नहीं बुझाना तुम
प्रतिशोध की आहुति से और प्रचंड बनाना तुम
अबकी बार महा रण होगा महा यज्ञ यह करना है
अबकी बार समझ लो निर्णायक रण हमको लड़ना है
अबकी बार हुआ रण तो बातों से ना रुक पायेगा
अबकी बार न संदेशा कोई दिल्ली से आयेगा
अबकी बार न हस्तक्षेप अमरीका का सह पायेंगे
अबकी बार ना माफ़ करें, न दरियादिली दिखांएंगे
अबकी बार न समझोंतों से कदम ठिठकनें पांयेंगे
सदा सदा के लिए ये किस्सा अबके हम निबटाएंगे
दिल्लीवालो बात सुनो ,समझो दिल में बैठा लो तुम
वीर शहीदों के बलिदानों पर यूँ खाक न डालो तुम
लहू बहाकर हम अपना जब जंग जीतकर आते हैं
हमसे ज्यादा आप दुश्मनों पर उदार हो जातें हैं
हम जीतेंगे और जीत को यूँ ही तुम लौटाओगे
बार बार यह ही होगा इसको तुम रोक न पाओगे
अगर रोकना है इसको तो जीत को ना लौटाओ तुम
दुश्मन को अहसास हो ऐसी हार का मज़ा चखाओ तुम
दुस्साहस की कीमत पर वह जब भी खंडित होएगा
सोचेगा सौ बार प्रथम जब बीज युद्ध के बोएगा
फिर ना उसकी आह पड़ेगी ,फिर ना लड़ने आयेगा
फिर ना उसकी आह पड़ेगी ,फिर ना लड़ने आयेगा
उसको हो मालूम वो खंडित- खंडित होता जाएगा
मैंने ना अग्नि दिखलाई ना शोले भड़काए हैं
मैंने तो एक सैनिक के दिल के उदगार सुनाए है
घनश्याम वशिष्ठ
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