विलग से वापिसी कर आज मुझे लगा ही नहीं बल्कि महसूस भी हुआ कि तागा मिलकर ही चादर बुनता है जो चादर ओढ़ने पर उसके सम्मान की सौहरत बनती है और वह द्रष्टा की करतल धुनियों से सम्मानित व्यक्ति और द्रष्टा के अन्तः की पुहुपित सिरहन उसके माथे की टीका की ललक में दमकती है, मुस्कराती और थिरकती है. वही अमुक पल चिर आनंद की अनुभूति में गोता लगाती है. लेकिन आज इस बाजारवाद की ओर बढ़ते युग ने विलगता को सर्वोपरि माना है जो एक अभिशाप की विवीशिका है. जहाँ अपनेपन की बैसाखी पर समग्रता कराहती द्रष्टिगोचर होती है और मनुष्यता को कोसती है- वाह रे! मानव.. पर तुझे यह नहीं पता है कि तुझने कोई अमरता का प्याला नहीं पिया है., तेरे जन्म लेते ही तेरी उल्टी गिनती शुरू हो गयी है. जिसका तुझे अहसास ही नहीं होता है. इसलिए हे बुद्धिजीवी!तू विलगता से समग्रता की ओर बढ़कर देख कितना आनंद मिलता है.
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