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Sunday, August 14, 2011


देखो लोगो देखो रे ...........

देख-देख कर सुबक रहीं हैं लालकिले की प्राचीरें
देखो लोगो  देखो रे   आज़ाद   हिंद  की  तस्वीरें 

वही  मोहल्ला  वही  मकां  है वही आज गलियारे हैं 
वही  है  सूरज  वही  चाँद  है वही  चमकते  तारें  हैं
महिमा मंडित वही हिमालय नूर ए चश्म नज़ारे हैं
पावन नदियों के कल-कल बहते निर्मल जल धारे हैं
माटी  की  सौंधी  खुशबु  के  नटखट  ख्वाब कुंवारे हैं
चूड़ी  की  खन-खन  पनघट पर पायल की झंकारें हैं
सब  कुछ  वैसा  ही  है  दिल  के बदले भाव हमारे है
जाति-धर्म  के  नाम  पे  बंट गए हम सारे के सारे हैं
हिन्दू -मुस्लिम  भाई  भाई  के  क्यूँ  मिटते  नारे  है
और   घृणा   से   विकृत   होते   जाते  भाई  चारे  है
निर्मल मन की आभा पर हावी क्यूँकर अंधियारे हैं
बैर  भाव   से  सने  हुए   किसने  ये  चित्र  उतारे  हैं
भाई की भाई के ऊपर  तानी हुई हैं शमशीरें
देखो लोगो  देखो रे  आज़ाद हिंद की तस्वीरें

रात  हिंद  के  अम्बर   पर   कैसी     काली   अंधियारी  है 
भय  भी  हो  भयभीत  भयानक  वक़्त अभी कुछ भारी है  
सब  कुछ उजला  दिखता  है, आभा  भी अचरजकारी    है 
उजले   कपडे   पहन   बगल   में ,  बैठा   अत्याचारी   है 
 तन से मन  से कण  कण से धन  लोलुप  भ्रष्टाचारी   है 
आज     उसी    के   हाथों  में  कोरी  तकदीर   हमारी   है
 मातृभूमि   से नेह   नहीं   है सत्ता   जिसको   प्यारी   है 
मीठी   बातों  में  जिसकी  उलझी  यह जनता   सारी  है
  धरती  का  सौदा  करने  को , आतुर  यह  व्यापारी  है
 और विडम्बना यह कि इस पर मुहर लगी  सरकारी  है
स्वंय   स्वम्भू    होकर   जननी      बेबस    है बेचारी है 
 अबला  की  असहाय की यह किसने तस्वीर उतारी है
 सूनी सूनी आँखों में हैं वही पुरानी जंजीरें 
 देखो लोगो देखो रे आज़ाद हिंद की तस्वीरें 

 गुंडों  नें  बदमाशों  नें  ली  मनमानी  की  थाम  लगाम 
 ज़ालिम थे कुख्यात मगर क्या हद है ये हो गए सुनाम 
  नहीं  सुरक्षा  घर  के  अन्दर   नहीं  गली  चौराहे  पर
  चारों  और  दिखाई  देती   दहशत  खडी  उठाये   सर 
 पौरुष   पर   हावी   कायरता   देखी  इसी  ज़माने   में
 शीश  उठाने से  बेहतर  हित  समझा  शीश झुकाने में
 खुशियाँ घर से बाहर निकलकर  आ बैठी  मयखाने में
 लोगों  का  ईमान  यहाँ  अब  बिकता  है  दो  आने  में
 अबला  की लज्जा का आँचल  हठ से खींच  गया कोई 
 किसी   अँधेरे   कोने   में   जा   दुबकी  पौरुषता  सोई 
जलकर  खाक  हुआ  तन अब  भी  आँखें हैं  रोई -रोई
किसनें  खींची  तस्वीरें  यह  बुझी - बुझी  खोई  -खोई
 व्याभिचार की हाट लगाईं किसनें गंगा के तीरे
देखो लोगो  देखो  रे  आज़ाद  हिंद  की  तस्वीरें

घनश्याम वशिष्ठ   

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