स्त्रीविमर्श-
घटना
तो बन सकती है लेकिन
संस्कृति का इतिहास नहीं बन सकती
पंडित
सुरेश नीरव (कवि-पत्रकार)
स्त्री लेखन और लेखन
में स्त्री समकालीन साहित्य का आज केन्द्रीय विमर्श है। विमर्श जब रचनात्मकता से
छूटकर फार्मूला बन जाता है तो लेखन भी क्रिएटिविटी से ज्यादा प्रोडक्ट की शक्ल
अख्तियार कर लेता है। स्त्री जो कभी या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता हुआ
करती थी आज ब्यूटीपार्लर और दर्जी के बूते आधुनिक बनकर अपने अचीन्हे अधिकारों के लिए उछल-कूद कर थकी-थकी जा
रही है। स्त्री शोषण पर अब शरदचंद के श्रीकांत की नायिका या जैनेन्द्रजी की
कल्याणी के मर्यादित फ्रेम में गंभीर सरोकारों से लैस सृजन आउटडेटेड हो चुका है।
घूंघट में आंसू बहाती स्त्री को आज के रचनालोक से बलात निष्काषित कर उसकी जगह नीबू
की सनसनाती ताज़गी से इठलाती, विदेशी साबुन के रेशमी झागो में जलकिल्लोल करती,पीजा-बर्गर
खाती,रेशमी त्वचा लिए डेटिंग पर जाती या पांच सितारा होटल के रेंप पर कैटवाक करती
स्त्री ने ले ली है। स्त्री को बाजार का
उपभोक्ता पदार्थ बनाने का यह काम बड़ी बारीकी से साहित्य के जरिए किया जा रहा है।
और हैरत है कि जाने-अनजाने खुद स्त्री इस अभियान में उत्साहपूर्वक शामिल है। इस
ब्रांड के प्रोडक्ट से साहित्य का बाज़ार अटा पड़ा है। अविश्वसनीयता की हद तक लाउड
और सतही उत्तेजना की बोल्डनेस का तमगा लगाए अधिकांश स्त्री-सृजन आत्म मुग्ध है।
शरीर शोषण के खिलाफ छिड़ी जंग के बहाने स्त्री देह को शरारती चुटकियों का विषय
बनाकर सामयिकता के सांचे में ढालकर जिस स्त्री को ढाला जा रहा है उससे वह टीवी
सीरियलों और सौंदर्य-प्रतियोगिताओं की घटना तो बन सकती है लेकिन संस्कृति का इतिहास
नहीं बन सकती। यथार्थ के आकाश से टूटे उल्कापिंड की तरह एक हाहाकारी हतप्रभता का
संस्थान बनती जा रही स्त्री, स्त्री-लेखन की प्रकृति और संस्कृति नहीं विकृति है।
मगर लेखन के इस पतनशील मूल्यों के प्रतिनिधि रचनाकारों की भीड़ में कुछ मन्नू
भंडारी,सूर्य बाला और चित्रा मुदगल स्त्री अस्मिता का प्रामाणिक मंजुघोष बनकर
स्वस्तिवाचन करती-सी लगती हैं।
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