हास्य-व्यंग्य-
दाल
रोटी खाओ,प्रभु के गुण गाओ
पंडित सुरेश नीरव
दाल रोटी खाओ,प्रभु
के गुण गाओ मतलब ये हुआ कि किसी को अगर आध्यात्मिक बनाना हो तो सबसे पहले उसे दाल
भक्षण कराना पड़ेगा। दाल खाते ही उसके शरीर में करीने से फिट भजन का सॉफ्टवेयर अपने आप एक्टिव
हो जाता है और प्राणी प्रभु के गुण ऑटोमेटिकली गाने लगता है कि हे करुणानिधान
प्रभु तुसी बड़े ग्रेट हो जो इस कड़क मंहगाई में भी दाल खाने को कुछ दाने सेंक्शन
कर ही देते हो। दाल की तासीर होती ही बड़ी धार्मिक है। इसीलिए तो मंदिरों के
प्रसाद में चने की दाल और गुड़ निशुल्क बंटता रहता है। इस मंहगाई में भी फ्री की
दाल खाओ और प्रभु के गुण गाओ। एक बात आपको और बता दें कि दाल का गाने से भी बड़ा
घनिष्ठ संबंध है। यदि कहीं कोई चिड़िया अपनी चोंच में दाल का दाना दबाले तो जमाना
झूम के गा उठता है- दाल का दाना लाई चिड़िया-दाल का दाना लाई चिड़िया। बंदर भी
नाचा,मोर भी नाचा..और साहब कल इस गाने को सुनकर मेरी बीबी इतनी भावुक हो गई कि वो
भी किचिन से चार दाने दाल के हाथ में लेकर खुशी से भरतनाट्यम करने लगी। मैंने जब
दाल-डांस का यह आय़टम सॉंग देखा तो दाल में जरूर कुछ काला है यह सोचकर अपनी खोपड़ी
खुजाने लगा। और सीबीआई अधिकारी की तरह दरयाफ्त करने लगा कि वो इतना खुश क्यों है।
तो उसने चिंहुंकते हुए कहा- चार दाने दाल के, मेरे दिल को गए उछाल के। मैंने कहा
चार दानें दाल के और इत्ती खुशी। तो उसने कहा पूरा एक शतक ढीला होता है एक किलो
दाल में। मैं खुशनसीब हूं कि मेरे पास चंद दाने दाल के हैं। फिर ज्वलनशील मुद्रा में उसने कहा- तुमसे मेरी
ये पचास ग्राम खुशी भी नहीं देखी जा रही है जो चले आए दाल-भात में मूसल चंद बनके
मेरी छाती पर 100 रुपये किलो की मूंग दलने। मैं उसकी ऐसी हहाकारी मुद्रा देखकर डर
के मारे फिल्मा गया और मुंह की गुल्लक से अछलकर ये गीत बाहर आ गया- अरे एक तू ही
धनवान गोरी बाकी सब कंगाल। और फिर पूछा कि तुमने दीवार फिल्म का वो डॉयलाग तो जरूर
सुना ही होगा कि- मेरे पास मां है ,कुछ
उसी डिजायन में तुम भी कहो कि मेरे पास चार दाने दाल है। मेरी जिंदगी कितनी खुशहाल
है। अपुन के पास तो जो खुशी है वो सब नकली है। मंहगाई के मारे अपनी तो दाल पतली है।
तुम्हारे हाथ में भगवान ने जरूर दाल की रेखा खींची होगी,मेरी दालचीनी तभी तो इस
मंहगाई में भी दाल का सुख भोग रही हो। ठीक है..ठीक है। पटायलॉजी के कितने भी फार्मूले
लगा लो मगर यहां आपकी दाल हरगिज़ नहीं गलनेवाली। चले आए मस्का लगाने। हुं, ये मुंह
और मसूर की दाल। उसने नखरों का बबलगम फुलाया और मेरे मुंह पर फोड़ा। मैंने
टुनटुनाते हुए कहा- हे दालवती,सौभाग्यवती तुम्हारी दाल-संपन्नता की वैभव गाथाएं जमाने
में इतनी मशहूर हो रहीं हैं कि कई सामाजिक संस्थाएं तुम्हारा सार्वजनिक अभिनंदन
करने को उतावली हो रही हैं। और कुछ समाजसेवी संस्थाएं तो चैरिटी के लिए गुटखे के
पाउच की तरह दाल के कुछ पाउच की मांग भी तुमसे करनेवाली हैं। तुम इन संस्थावालों
की नजर में मां की दाल भी हो और दाल मखानी भी हो। दाल की दुनिया की मैडम दाऊद। और
तुम्हारी नज़र में। उसने प्रश्न का हवाई फायर किया। मैंने मिमयाते हुए कहा- मेरी
नज़र में तो तुम दालों-की-दाल यानी तूअर की दाल हो। और मैं तुम्हारा कालीमूंछ
चावल। यानी कि तू दाल-दाल मैं भात-भात। ये गुनगुनाते हुए उसकी फ्री होल्ड कमर में
हाथ डालकर मैं भी उसके दाल महोत्सव में शरीक हो गया। मंहगाई ने जब दाल पतली कर रखी
हो तो दाल गलाने का मौका जहां मिले चूकना नहीं चाहिए। शास्त्रों में ऐसा ही लिखा
है।
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