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Saturday, September 17, 2011


यों तो किसी भी व्यक्ति के निर्माण में मां का विशिष्ट योगदान होता है पर यह बात पं० रामप्रसाद बिस्मिल की मां के संदर्भ मे और भी ज़यादा दमदारी से लागू होती है। बिसमिल चरित मे मैने बिसमिल जी की मां मूलमती देवी का रेखाचित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया है इस कोशिश में मुझे कितनी कामयाबी मिली है बताइयेगा अवश्य------------
बिस्मिल की मां
मकतब में,स्कूल में,शिक्षा-शिखर चढे थे
आक्सफोर्ड या केंब्रिज़ में वे नहीं पढे थे

अपनी धरती,अपनी संस्कृति के गौरव थे
भारत की ग्रामीण चेतना के सौरभ थे
बडे -बडे संकट आये पर ,वे ना भूले
वचन निभाने की धुन में ,रहते थे फूले
ज्यों जीजाबाई ने शिवाजी का निर्माण किया था
मूलमती माता ने , उनको सहज गढा था
पिता सख्त अनुशासन प्रिय थे,सदा क्रुद्ध दिखते थे
उनके सामने रामप्रसाद जी कुछ ना कुछ लिखते थे

लेकिन मां का आंचल ,
उनको शीतल कर देता था
नवसाहस, नूतन उमंग,
रग रग में भर देता था
"राम-कृष्ण से बनो,मत
डरो नियति के वारों से
कालचक्र थम जाता है,
वीरों की हुंकारों से
तुमको भरनी है नयी ज्योति,
भारत की भ्रमित जवानी में

देश हमारा शोषित है,
जकडा है विकट गुलामी मे
मैं तो बस तेरी माता हूं
हम सबकी मां भारत मां है
देख रही है तुम्हे आज
नव आशा से भारत मां है
बेटा जैसे भी संभव हो
भारत मां का दुख हरना
दोनों का क्लेश शमन करना
पथ पर चलते तुम मत डरना"
बचपन में ऐेसी शिक्षा दे
बालक को बिस्मिल बना दिया
निर्मम अंगरेज़ी- शासन को
जिसने सूखे- पत्ते सा हिला दिया
वह कैसी सिंहनीं महिला थी
ऐसे हम समझ ना पायेंगे
उसके धीरज़ की शौर्य-कथा
हम सुनेंगे तो गुन गायेंगे
फांसी से चंद मिनट पहले
बिस्मिल से मिलने मां आयी
सम्मुख अपने मां देखी
बिसमिल की आंख छलक आयी
मां कडकी-" क्या तू कायर है?
या मरने से डर लगता है ?
क्रांति-कर्म में रत है तू
कहकर के सबको ठगता है?
जब यों ही अश्रु बहाने थे
तो,संसारी बनकर रहता
देख तेरी यह कायरता
मेरा विश्वास नही ढहता।;
बिस्मिल बोले थे-"प्राणों का
बिल्कुल भी मोह नही मुझको
कुछ देर में फांसी चढना है
इसका कोई छोह नही मुझको
भारतमाता के चरणों मे
चढने की बेला आयी है
बरसों से प्रतीक्षित भावों के
कढने की बेला आयी है
ये आंसू नहीं हैं कमजोरी
इनमें है छिपी कराह नहीं
इन नश्वर प्राणों कि मुझको

है किंचित भी परवाह नहीं
लेकिन मां तेरे चरणों मे
अब कभी बैठ ना पाऊंगा
स्वर्ग भले ही मिल जाये
पर तेरी गोद ना पाऊंगा
भारतमाता की चिंता में
निजमाता को भूला ही रहा
देशभक्ति की धुन में मैं
मन ही मन,फूला ही रहा
तेरी सेवा का अवसर मां
इस जनम में ना मिल पायेगा
जननी अब अगले जीवन मे
यह कर्ज़ तेरा चुक पायेगा
सिर पर लेकर के कर्ज़ चला
यह आंख इसलिए ही नम है
माता को सुख मैं दे ना सका
निश्चय ही मुझको यह गम है।"
माता ने श्वस्ति कि मुद्रा में
दायां कर अपना उठा दिया
शिववर्मा को संकेतो से फिर
पास में अपने बुला लिया
" जो भी कहना हो कहो,
पार्टी का एक सिपाही है
तेरे बाद तेरे पथ पर
चलने वाला ये राही है।'


आंखों में दृढता लिए हुए
माता उस रोज़ चली आयी
ममता-कोमलता परे हटा
वह दुर्गा बनकर थी छायी
ऐसी दृढता की प्रतिमा का
बेटा ही बिसमिल बनता है
इतिहास जिसके संकेतों से
मुडता है फिर से ,गढता है।

अरविंद पथिक

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