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Sunday, October 23, 2011

हम आदमी नहीं महज़ एक आंकड़ा हैं

पंडित सुरेश नीरव

हास्य-व्यंग्य-
आंकड़ों के देश में
पंडित सुरेश नीरव
कभी रहे होंगे हम कृषि-प्रधान देश के नागरिक अब तो हम बाकायदा आंकड़ा-प्रधान देश की आंकड़ेबाज सरकार के आंकड़ामुखी नागरिक हैं। नागरिक भी क्या सिर्फ आंकड़ा ही हैं। गरीबी की रेखा के नीचे का आंकड़ा या गरीबी की रेखा के ऊपर का आंकड़ा। आंकड़े हमारी पहचान हैं। हमारे लोकतंत्र की शान हैं। हमारी सरकार और विपक्ष दोनों के प्राणों के प्राण हैं- आंकड़े। आंकड़ों के बल पर सरकार सीना फुलाती है। आंकड़ों की दम पर प्रतिपक्ष सरकार को ललकारता है। आंकड़ों के बिना दोनों का ही काम नहीं चलता। और-तो-और जिन आंकड़ों के बूते सरकार को प्रतिपक्ष परेशान करता है सत्ता में आते ही प्रतिपक्ष उन्हीं आंकड़ों के बूते सरकार को आंखें दिखाने लगता है। आंकड़े वकालत करते हैं। सरकार की भी और प्रतिपक्ष की भी। ज़रा सोचिए अगर ये आंकड़े नहीं होते तो सरकार और प्रतिपक्ष दोनों की क्या हालत होती। पिछले 64 साल से ये आंकड़े ही तो हैं जो हमारे लोकतंत्र को पाल-पोस रहे हैं। आंकड़े हैं तो आंकड़ेबाज हैं। और ये आंकड़ेबाज ही तो हैं जो सरकार और प्रतिपक्ष दोनों को जिंदा रखे हुए हैं. जनता को मुगालता है कि लोकतंत्र उनके कारण है। असली लोकतंत्र तो आंकड़े और आंकड़ेबाजों के रहमो-करम पर चल रहा है। जनता बेचारी तो खुद एक आंकड़ा है। जनसंख्या का आंकड़ा। गरीबी की रेखा का आंकड़ा। साक्षरता का आंकड़ा। निरक्षरता का आंकड़ा। विकास का आंकड़ा। औसत आय की बढ़त का आंकड़ा। विपक्ष के लिए जनता है सिर्फ मंहगाई का शिकार होते रहने का एक इमोशनल आंकड़ा। बेरोजगारी का आंकड़ा। मुद्रास्फीति का आंकड़ा। ये आंकड़े श्रंगार है विपक्ष का। तो दूसरी तरफ हमारे देश का हरएक बजट सरकारी आंकड़ों की दिलचस्प नुमाइश का नमूना होता है। आंकड़ों की लुभावनी उठापटक से सरकार जनता को बजट की जादुई तश्तरी में रंगीन सपने परोसती है। और जब यह सरकारी तिलिस्म टूटता है तो सरकार डांटते हुए पब्लिक से कहती है कि उसके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है जो गरीबी,भुखमरी और मंहगाई को एक झटके में गायब कर दे। फिर भी हम कोशिश कर रहे हैं कि कीमतों और पेट्रोल के दाम बढ़ाकर भी मंहगाई न बढ़ने दें। वैसे भी मंहगाई बढ़ाने की सरकार की कोई इच्छा नहीं रहती है। वो तो विकास का आंकड़ा आगे सरकाने के लिए बस यूं ही वह कीमतों में इजाफा कर देती है। कीमते बढ़ने से बजट में एक अजीब-सा शो आ जाता है। अब यदि 35 रुपए का एक सेव कोई खरीदता है तो इससे यही तो सिद्द होता है कि हमारे देश के प्रति नागरिक की आमदनी में यकीनन इजाफा हुआ है। आमदनी इकाई से दहाई और दहाई से सेंकड़े की सीमा पार कर हजार के आंकड़े को छू रही है। सड़कें बढ़ी हैं,जिले बढ़े हैं। प्रदेश बढ़े हैं। सांसदों,विधायकों के भत्ते बढ़े हैं। आमदनी के आंकड़े बताते हैं कि हमने चौतरफा तरक्की है। अभी हाल में भूख और गरीबी से तंग आकर एक परिवार के मुखिया ने अपनी पत्नी और दो बच्चों को खाने में जहर मिलाकर खिलाकर सामूहिक आत्महत्या कर ली। सरकार ने इस घटना को भूख से मरना नहीं माना। सरकार का तर्क था कि परिवार के सदस्यों की मौत विषाक्त भोजन करने से हुई है। भूख से नहीं हुई है। भूख से मरने का तो सवाल ही नहीं उठता। मेडिकल रिपोर्ट ये कह रही है कि इनकी मौत जहरीले खाने से हुई है। इस तरह सरकार ने भूख से मरनेवालों का आंकड़ा लपक कर कैच कर लिया। आंकड़ों की ये बाजीगरी ही सरकार का हुनर है। हमारे देश में आज तीन सौ चैनल हैं। तरक्की का कितना खुशनुमा आंकड़ा है,ये। भले ही बिजली कटौती के कारण वाशिंग मशीन में कपड़े धोने के शौकीन बिजली न होने के कारण बिना धुले कपड़े के ही डेटिंग पर जाने को मजबूर हों। आंकड़ों की धुलाई,रंगाई और पुताई में हमारी सरकार कब कहां और कोई कोताइश करती है। बड़ा आंकड़ाखोर है हमारा लोकतंत्र और बड़े आंकड़ेबाज हैं हमारे राजनेता।
आई-204,गोविंदपुरम,ग़ज़ियाबाद-201013
मोबाईल-09810243966

1 comment:

Unknown said...

बहुत सुंदर