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Wednesday, November 30, 2011

वैदिक काल में पशुबलि

सहज जिज्ञासा रहती है कि वेदकाल में पशुबलि और गौमांस को लेकर क्या व्यवस्थाएं रही होंगी। जयलोकमंगल के पाठकों के लिए  दो ऋचाओं का उल्लेख उल्लेखनीय है-
क्या वैदिक यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी ?
बलि  दी जाती थी जिसे बाद में  बौद्धों और जैनियों के विरोध के कारण छोड़  दिया गया ?
श्री काणे अपने ग्रंथ धर्मशास्त्र विचार में लिखते हैं;”
 कि वैदिक काल में गो पवित्र नहीं थी। उसकी पवित्रता के कारण ही वजसनेयी संहिता में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिये। “

♥ ऋग्वेद में इन्द्र का कथन आता है (१०.८६.१४), “वे पकाते हैं मेरे लिये पन्द्र्ह बैल, मैं खाता हूँ उनका वसा और वे भर देते हैं मेरा पेट खाने से” ।
♥ ♥ ऋग्वेद में ही अग्नि के सन्दर्भ में आता है (१०. ९१. १४)कि “उन्हे घोड़ों, साँड़ों, बैलों, और बाँझ गायों, तथा भेड़ों की बलि दी जाती थी..”
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1 comment:

सुज्ञ said...

@ मांसाहार के नाम से प्रचारित किये जा रहे मौलिक वेदमंत्र में मांस, बैल या वसा का कोई सन्दर्भ नहीं है। यह रहे मंत्र और उनका अर्थ:
उक्ष्णो हि मे पंचदश साकं पचन्ति विंशमित्।
उताहमद्मि पवि इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।।
ऋग्वेद (मंडल १० सूक्त ८६ मंत्र १४)
विश्व में इन्द्र ही सर्वोपरि है। शची द्वारा प्रेरित 15-20 औषधियाँ एक साथ मेरे लिये परिपक्व होती हैं। उनके सेवन से मेरे दोनों कोख पुष्ट होते हैं।

मज़े की बात यह है कि इसके अगले ही मंत्र (10/86/15) में इन्द्र को गोयूथ के बीच प्रसन्न वृषभ की तरह कल्याणकारी होने की प्रार्थना करते समय बैल के लिये स्पष्ट रूप से वृषभ शब्द का प्रयोग किया गया है। यदि उपरोक्त मंत्र में भी मंत्रदृष्टा ऋषि का आशय वृषभ होता तो उन्हें शब्द छिपाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। इस एक उदाहरण से भी स्पष्ट है कि वेदों मंत्रों का मंतव्य क्या है।

पहले वेदमंत्र की तरह ही अगले सन्दर्भित मंत्र में भी पशुधन देने की नहीं, (देवताओं को प्रसन्न करके) लेने की बात हो रही है।
यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशा मेषा अवसृष्टास आहुताः।
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदा मतिं जनये चारुमग्नये॥
ऋग्वेद (मण्डल १० सूक्त ९१ मंत्र १४)
अन्न-रस का पान करने वाले, सोम की आहुति ग्रहण करने वाले, श्रेष्ठमति वाले अग्निदेव के लिये अपने मन और बुद्धि शुद्ध करो; तभी तो अश्व, गौ, मेष और वृषभ की सज्जित भेंट प्राप्त होगी।