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Tuesday, November 8, 2011

बारीक शिल्प की कविता

डॉ.मधु चतुर्वेदी
प्रतिक्रिया-
आपकी कविता बेहद बारीक शिल्प की कविता है। जहां आदमी बीते हुए लम्हों के धुंध में जिंदगी तलाशता है। उस धुंध से वह बाहर निकलने को छटपटाता है। हाथ-पांव पटकता है। मगर वह फिर बार-बार उसी दलदल में छपाक से गिर जाता है। आप बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आईं मगर बहुत करीने से। आपको बधाई। आपकी ये पंक्तियां बहुत मर्मस्पर्शी हैं-पंडित सुरेश नीरव
यादें – धुआं – धुआं होकर बाहर आती हैं
और बाहर आते ही बदल जाती हैं,
एक करामाती जिन में
जिन - जो एक मीठा फरेब
देता है, आपको, आपका गुलाम
होने का पर -
आखरश आप हो जाते हैं उसके गुलाम!
उसके एक इशारे पर, ज़हन का
वह सर्द कोना यक ब यक बदल
जाता है उबलते लावे में -
और उस दलदली लावे में डूबने उतराने लग जाता है
आपका वज़ूद, राहत के
लिये छटपटाता कसमसाता!
पर यादों के उस तिलिस्मी जिन
की सख्त गिरफत
न तो आपको डूबने ही देती है न उबरने

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