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Saturday, December 17, 2011

हमें अपने भारतीय होने पर नाज़ है


पंडित सुरेश नीरव
हास्य-व्यंग्य-
स्वदेशी स्वाभिमानी का 
निर्मल बयान
पंडित सुरेश नीरव
पश्चिमी सभ्यता ने उजाड़कर रख दिया है हमारी संस्कृति को। कोई पार्टी,कोई जश्न बिना शराब के होता ही नहीं है। लगता है पहले तो कोई तीज-त्योहार मनते ही नहीं होंगे। सालों-साल ड्राई डे ही ड्राई डे रहा करते होंगे। गांधीजी ने अंग्रेजों से कहा कि भारत छोड़ो। उन्होंने भी बापू की रिसपेक्ट करते हुए भारत तो छोड़ ही दिया अपनी बुराई भी वे भारत में ही छोड़ गए। वैसे भी पार्टी खत्म हो जाने के बाद जूठी थाली-कटोरी कौन शरीफ अपने साथ लेकर जाता है। बेशक हर डिजायन का जश्न साफ-सफैयत के बड़े सलीके के साथ तशरीफ लाता है मगर जाते-जाते बड़ी प्रसन्नता और उदारतापूर्वक खूब गंदगी भी छोड़ जाता है। जितना बड़ा जलसा उसके पिछाड़ी उतनी ही बड़ी गंदगी। दोसौ साल के अखंड सियासती जलसे के बाद अंग्रेज भारत से गए थे। दिवाली की आतिशबाजी के बाद का कचरा तो बचना ही था। बतौर गंदगी अंग्रेज पूरा पाकिस्तान ही छोड़ गए। आजादी के बाद पाकिस्तान। जैसे कॉमनवेल्थ गेम के बाद सुरेश कलमाड़ी। हर जलसे के बाद गंदगी ही तो बचती है। शराबनोशी को भी भारतीयसंस्कृति के जागरूक सिपहिए  ससम्मान अंग्रेजों का छोड़ा हुआ कचरा ही मानते हैं। चलिए अगर ये मान भी लिया जाए कि शराबनोशी की ललित कला से हमें अंग्रेजों ने परिचित कराया। लेकिन जहरीली शराब पीकर जीवन का उत्सर्ग करने की तकनीक तो खालिस भारतीय ही मानी जाएगी। इस महत्वपूर्ण तकनीक के आविष्कार का सुयश तो हमारे स्वदेशी स्वाभिमान के खाते में ही दर्ज होगा। यह स्वदेशी स्वाभिमान ही तो हमारी संस्कृति का कालाधन है। जो कि तमाम विदेशी हमले झेलने के बावजूद हमारे आचरण की स्विसबैंक में आज भी सुरक्षित है। और आनेवाली असंख्य सदियों तक सुरक्षित रहेगा। ये कोई पाकिस्तान की सीमा चौकी थोड़े ही है जो कि नाटो के एक अदने से हमले में चर्र-चूं बोल जाए। कोई बात है जो मिटती हस्ती नहीं हमारी। हम संस्कृति के चौतरफा विदेशी हमलों के तूफानों में अपनी स्वदेश स्वाभिमान की मोमबत्ती जलाए रखने की तकनीक के महा हुनरबाज हैं। हमारे मुंह के दांतों के बंकर में छिपे विदेशी चुइंगम और टॉफियों के छापामार घुसपैठिए पेप्सी और कोक की शह पर पीजा-बर्गर की कितनी भी गोलाबारी करते रहें हमारे जबड़े के इंडियागेट में दिन-रात जलती राष्ट्रीयता की अमरज्योति कभी नहीं थरथराएगी। वह अकंप जलती रहेगी। कॉलगेटी टूथपेस्ट के गारे से मढ़ी दांतों की अभेद्य सुरक्षापंक्तियों को कौन विदेशी हमलावर भेद सकता है। हमारी दाढ़ी में तिनका भी पर नहीं मार सकता। क्योंकि हम चीन के बने सुपरसोनिक शेविंग ब्लेड से चेहरे के भूगोल पर उगी खरपतवार को झलक पाते ही नेस्तनाबूत कर देते हैं। इंसाफ की डगर पर चलते हुए हमारे डग कभी डगमगा नहीं सकते। रीबोक और एडीडास के भरोसेमंद जूते हमारे पैरों की हिफाजत के लिए पूरी चाकचौबंदी होशयारी के साथ हर वक्त मुस्तैद रहते हैं। हमारी तहजीब की कमीज़ हमेशा सफेद रहती है। एलजी की वाशिंग मशीन की धुलाई जिद्दी दागों की ऐसी धुनाई करती है कि दुर्दांत-से-दुर्दांत दाग सिर पर पैर रखकर ईमानदारी की तरह गायब हो जाता है। आर्थिक मंदी ने जहां बड़े-बड़े सूरमा देशों की बत्ती गुल कर दी है मुद्रास्फीति के ऐसे घुप्प अंधेरे में भी हम अपने-निजी-और-पर्सनल जापानी इनवर्टर के बूते तम सो मा ज्योतिर्गमय  के हिट जुमले का भरपेट लुत्फ उठा रहे हैं। चीन में बने खिलौने-सी खूबसूरत हमारी ज़िंदगी में कामयाबियां विदेशी उद्योग की तरह फलती-फूलती रहती हैं। हमने अपनी बिंदास खुशियों और मौज-मस्ती का बीमा विदेशी इंश्योरेंस कंपनी में करवाया हुआ है। सैमसंग और सोनी के रंगीन टीवी-सी हमारी मल्टीचैनल जिंदगी के बुद्धागार्डन में सऊदी अरब के खजूर और अफगानिस्तान के काजू-बादाम गलबहियां डाले चहलकदमी करते रहते हैं। हमारे देश की प्रतिभाएं बड़ी हाइक्वालिटी की हैं। हम उनका टनाटन सम्मान करते हैं। इसलिए जुकाम-जैसी अदना-सी बीमारी के लिए उन्हें परेशान करने का पाप अपने सिर लेने के बजाय चुपचाप अमेरिका के डॉक्टर को खुशी-खुशी डिस्टर्ब करने चले जाते हैं। अपने दुख में अपनों को क्यों दुखी करना। अपने देश और अपने देशवासियों से इस खूंखार भावुक लगाव ने ही मुझे दुर्लभ-दुर्दांत स्वदेशाभिमानी बना दिया है। अभी-अभी अमेरिका से मेडिकल-पिकनिक मना के लौटा हूं और अगले ही हफ्ते स्वदेशी के महत्व पर भाषण देने दक्षिण अफ्रीका जा रहा हूं। गांधीजी के मन में भी स्वदेशप्रेम का जज्बा वहीं उगा था । स्वदेशप्रेम के लिए दक्षिण उफ्रीका की जमीन वैसी ही उपजाऊ है जैसे चाय की खेती के लिए दार्जलिंग की जमीन। उस पवित्र भूमि की धूल को चंदन की तरह माथे से नहीं लगा पाया तो मरणोपरांत भी मलाल रहेगा। लागी छूटे ना। स्वदेश स्वाभिमान का जज्बा है ही कुछ ऐसा। सांस छूट जाए मगर जज्बा नहीं छूटता।
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