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Tuesday, December 20, 2011

हिंगलिश के फटे चीथड़ों में सजे बुद्धिजीवी


सम्मति-
संस्कृतः संस्कृति की गौरव गाथा है
आदरणीय विश्वमोहन तिवारीजी,
संस्कृत भाषा और कंप्यूटर को लेकर आपका आलेख पढ़ा। सही बात तो यह है कि जिस दिन चार पैरों पर उछल-कूद करते बंदर ने दो हाथों से चलना शुरू किया होगा बंदर ने मनुष्यता के रास्ते पर  उसी दिन पहला कदम बढ़ाया होगा। और जिस दिन उसने संस्कृत भाषा को आत्मसात किया होगा उस दिन ही वह समग्रता में मनुष्य हुआ होगा।  लार्ड मैकाले द्वारा बनाए गए अंग्रेजी के डंपिंग ग्रांउंड में  पाश्चात्य-कचरे के मलवे में  तिलचट्टों की तरह रेंगते छदम बुद्धिजीवियों को इस भाषा की विराटता का जब अनुभव ही नहीं हुआ तो वो इसके महत्व को कैसे समझ सकते हैं। उन्होंने कब वाल्टर यूजीन क्लार्क को जाना है,जिसकी नज़र में:- पणिनीय व्याकरण विश्व का सर्वप्रथम वैज्ञानिक व्याकरण है;  जोकि प्रचलित व्याकरणों में सबसे पुरातन है, और महानतमों में से एक है। हलंत,विसर्ग और प्रत्ययों से लैस संस्कृत के भाषयिक प्रासाद की एक झलक भी जिन्होंने नहीं देखी वह कैसे अल्ब्रेख्ट वैबर के रोमांच को समझ सकते हैं जहां बरबस ही संस्कृत की तारीफ में वह कह उठता है-हम एकदम से भव्य भवन में प्रवेश करते हैं जिसके वास्तुशिल्पी का नाम पाणिनि है तथा इस भवन में से जो भी जाता है वह इसके आद्भुत्य से प्रभावित हुए बिना तथा प्रशंसा किये बिना रह नहीं रहता। भाषा जितनी भी‌ घटनाओं की अभिव्यक्ति कर सकती है इस व्याकरण में उसके लिये पूर्ण क्षमता है, यह क्षमता उसके अविष्कारक की अद्भुत विदग्धता तथा उसकी भाषा के सम्पूर्ण क्षेत्र की गहरी पकड़ दर्शाती है।"
 तमाम अंग्रेजीयत के दबाव में पले-बढ़े पंडित जवाहर लाल नेहरू को तभी तो कहना पड़ा था कि-यदि मुझसे कोई पूछे कि भारत का सर्वाधिक मूल्यवान रत्नकोश क्या है,  तो मैं बिना किसी झिझक के उत्तर दूंगा कि वह संस्कृत भाषा है, और उसका साहित्य है तथा वह सब कुछ जो उसमें समाहित है। वह गौरवपूर्ण भव्य विरासत है,और जब तक इसका अस्तित्व है, जब तक यह हमारी जनता के जीवन को प्रभावित करती रहेगी, तब तक यह भारत की मूल सृजनशीलता जीवंत रहेगी। भारत ने एक गौरवपूर्ण भव्य भाषा - संस्कृत - का निर्माण किया, और इस भाषा, और इसकी‌ कलाएं और स्थापत्य के द्वारा इसने सुदूर विदेशों को अपने जीवंत संदेश भेजे ।"
यह तो अठारहवीं शती‌ के अंत में पश्चिम द्वारा की गई संस्कृत की खोज है, तथा हमारे द्वारा भाषा के विश्लेषण करने की भारतीय विधियों के अध्ययन की‌ कि जिसने हमारे भाषा तथा व्याकरण के अध्ययन में क्रान्ति ला दी; तथा इससे हमारे तुलनात्मक भाषा विज्ञान का जन्म हुआ।  भारत में‌ भाषा का अध्ययन यूनान या रोम से कहीं अधिक वस्तुपरक तथा वैज्ञानिक था। वे दर्शन तथा वाक्यरचना संबन्धों के स्थान पर भाषा के अनुभवजन्य विश्लेषण में‌ अधिक रुचि रखते थे । भाषा का भारतीय अध्ययन उतना ही वस्तुपरक था जितनी किसी शरीर विज्ञानी द्वारा शरीर की चीरफ़ाड़।"
आज नासा के वैज्ञानिक संस्कृत को कंप्यूटर के लिए सबसे मुफीद भाषा बता रहे हैं मगर कुछ आत्म मुग्ध रचनाकार अब भी हिंगलिश के फटे चीथड़ों को अपने लिबास में टांककर अपने को आधुनिक समझ रहे हैं। आपके आलेख पढ़ने से शायद इनकी तंद्रा टूटे।
एक अच्छे आलेख के लिए आपको कोटिशः बधाई।
पंडित सुरेश नीरव

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