साक्षात्कार-
अपनी जमीन पर आने को
मन हमेशा तड़पता है
रईस खॉ
पिछले दिनों विख्यात सितारवादक रईस खान का
पाकिस्तान से भारत में आयोजित हो रहे तमाम संगीत कार्यक्रमों के सिलसिले में भारत
आना हुआ। प्रस्तुत है जिंदगी के तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों को उदघाटित करता प्रवासी
संसार के लिए दिया गया उनका एक रोचक साक्षात्कार।
प्रवासी संसारः रईस
साहब आप खुशमिजाज़ शख्सियत के मालिक हैं। आपके तजुर्बों की दुनिया भी काफी सरसब्ज
है। दुनिया में आपके आने का तजुर्बा भी हमें लगता है यकीनन काफी दिलचस्प होगा।
सही अंदाज़ा लगाया
आपने। हम मुहर्रम के दिनों में पैदा हुए और वो भी अस्पताल में नहीं बल्कि एक बेशकीमती
रॉल्सरायज़ कार में।
प्रवासी संसारः
(चौंकते हुए) कार में।
जी हां। मेरे वालिद
जनाब उस्ताद मुहम्मद खॉं मेवाती घरानें के मशहूर सितारवादक थे। और मध्यप्रदेश के
इंदौर रियासत में रहा करते थे। होल्कर महाराज उनकी बहुत इज्जत करते थे। एक सिल्वर
कलर की ऱॉल्स रायज उन्होंने हमारे पिताजी को दी हुई थी। 25 नवंबर 1939 की सुबह
करीब चार-पांच बजे हमारी अम्मीजान (उस्ताद विलायत खॉ की बहन) को दर्द महसूस हुए।
उन्होंने ड्रायवर इस्माइल को आवाज़ देकर उठाया और बोलीं मुझे फौरन हॉस्पीटल ले चलो।
मेरी तबीयत बहुत खराब हो रही है। ड्रायवर साहब जब तक अम्मीजान को अस्पताल पहुंचा
पाते हम रास्ते में ही कार में नमूदार हो गए।
प्रवासी संसारः इसका
मतलब ये हुआ कि संगीत आपको खानदानी विरासत में मिला है।
बिल्कुल। मेरे
पिताजी, मेरे दादा,नगड़ दादा (हस्सू-नत्थू खॉं) सभी मशहूर सितारनवाज रहे हैं। और
आसपास का सारा माहौल भी संगीतमय था। इंदौर में ही उन दिनों मेरे वालिद के अलावा बानू
खां साहब हुआ करते थे तो देवास में अमानत खां साहब थे। होनों ही कुलहिंद शौहरत के
मालिक। खुद लता मंगेशकर अमानत खां साहब की शागिर्दा रही हैं।
प्रवासी संसारः आप
अपना गुरू किसे मानते हैं।
मैं अभीतक अपना
गुरू, अपना उस्ताद अपने वालिद साहब को मानता हूं। वे बेहद बेहतरीन टीचर थे।
उन्होंने खुद-ब-खुद मुझे बहुत बढ़िया तालीम दी।
प्रवासी संसारः
उस्ताद विलायत खां साहब को भी तमाम लोग आपका उस्ताद मानते हैं।
(गुस्से में)-
बिल्कुल गलत। विलायत खां मेरे उस्ताद कभी नहीं रहे। और मैं उन्हें उस्ताद कैसे भी
नहीं मानता। बंबई में वे खुद मेरे पिता के बाकायदा शागिर्द रहे हैं। फिर जब मेरे
वालिद खुद मुझे तालीम दे रहे हों तब मुझे विलायत खां को अपना उस्ताद बनाने की
जरूरत ही क्यों पड़ती। अरे उनके तो खानदान में कोई संगीतकार नहीं हुआ। उनके पिताजी
कव्वाल हुआ करते थे। गायकी वो क्या जाने।
प्रवासी संसारः आप
कि नज़र में गायकी क्या है।
देखिए गायकी के तीन
अंग होते हैं-(1) गमक(2) छूट (3) मीड। सितार पर अच्छी गायकी का तकाज़ा है कि
पोना-पोना मिनट हर अंग को बजाया जाए तभी कुशल गायन होता है। और एक बात और...(हंसते
हुए) शागिर्द हो आबिल,उस्ताद हो काबिल और खुदा हो शामिल बात तभी बनती है। मुसलसल
रियाज भी बेहद जरूरी है। इसके लिए एक बात और... सारा ध्यान अपनी कला पर ही रखना
चाहिए कलाकार को। यानीकि दूसरों को सुलझाओ मत और अपने को उलझाओ मत।
प्रवासी संसारः जनाब
एक बात समझ में नहीं आई..जब आपकी जड़ें हिंदुस्तान में हैं तो आप पाकिस्तान कैसे
चले गए।
(हंसते हुए) इसके
पीछे एक हसीन वाकया है। हुआ यूं कि एक प्रोग्राम के मुताल्लिक मेरा करांची जाना हुआ। यहां हमारी
मुलाकात पाकिस्तान की मशहूर गायिका बेगम बिलकीज़ खान से हुई। पाकिस्तान में तीन ही
मशहूर गायिकाएं हैं- नूरजहां,फरीदा खानम और बेगम बिलकीज़ खान। बिलकीज खान से हमारी
शादी हो गई।
प्रवासी संसारः तो
फकत बेगम की खातिर आपने अपना मुल्क छोड़ दिया।
जी नहीं। ऐसा
बिल्कुल नहीं हैं। हमारी बेगम साहिबा तो सात साल यहां मुंबई में हमारे साथ ही रहीं
मगर यहां का क्लाइमेट उन्हें रास नहीं आया। इनकी साइनस की शिकायत से बेजार होकर
हिंदुस्तान छोड़ने का हमें फैसला करना पड़ा। और यूं भी मैं कोई रिस्क लेना नहीं
चाहता था। क्योंकि इससे पहले मेरी तीन बीबियां अल्लाह को प्यारी हो चुकी थीं। ये
हमारी चौथी बेगम साहिबा हैं। तो एक कारण तो ये हुआ और दूसरा काऱण बंबई के भ्रष्ट
इनकमटेक्स अधिकारी। जब मन करता आ जाते। टेबल पर रखी ऐश ट्रे की कीमत पूछते। हम
कहते कि दिल्ली से ली है। पांच रुपए की है। तो बोलेते कि रसीद बताइए कि ये पांच
रुपए की है। अब आप पांच रुपए की रसीद के
लिए दिल्ली जाओ। ऐसे ही प्रोग्राम में यदि हजार रुपए मिलें तो आयोजक कहे कि रसीद
पर 500 ही लिखना। हमारा कहना होता कि जो लेंगे रसीद उतने की ही लिखेंगे। इन सब
बातों से परेशान होकर ही हमें इंडिया छोड़ने का ये फैसला लेना पड़ा।
प्रवासी संसारः
पाकिस्तान के लोगों ने आपको किस स्तर पर स्वीकार किया।
वो कुछ जानते ही
नहीं हैं। स्वीकार क्या करेंगे। संगीत की जो नजर हिंदुस्तान के पास है वो उनके पास
कहां है। सुर से खफा और लय से नाराज कलाकारों का जमावड़ा है पाकिस्तान में।
प्रवासी संसारः
पाकिस्तान से कोई भी कलाकार हिंदुस्तान आता है तो यहां उसे हाथों-हाथ लिया जाता
है। क्या हिंदुस्तान के कलाकारों का भी वहां ऐसा ही इस्तकबाल होता है।
बिलकुल नहीं होता।
भारत में लोग कला की पूजा करते हैं। मेहमाननवाज़ होते हैं। यह भारत की परंपरा है।
वहां लोगों के दिल इतने खुले हुए नहीं हैं। उन्हें भारत के बड़े-से-बड़े कलाकार को
भी रेडियो-टीवी पर बुलाने में परेशानी होती है। जिस मुल्क में फनकार की इज्जत नहीं
होती वो मुल्क हमेशा पिछड़ जाता है। वहां फनकारों की भारत की तरह इज्जत नहीं होती
है। यहां तो छह-छह महीने पहले हमारे प्रोग्रामों की तीरीखें तय हो जाती हैं।
प्रवासी संसारः आप
भारत और पाकिस्तान के सियासती मंजर में क्या फर्क़ देखते हैं।
यहां के नेता,मंत्री
कला की गहरी समझ रखते हैं। वहां के हुक्मरान नहीं रखते। कबाब और पाए की समझ तक
सीमित हैं वे लोग। हां जनाब परवेज मुशर्रफ जरूर जानकार हैं। उनकी लड़की मेरी
शागिर्द है।
प्रवासी संसारः आप
भारत से क्या अपेक्षाएं रखते हैं।
(हंसते हुए) यही की
वीज़ा डेस्क पर ऐसे लोगों को ही बैठाएं जो कलाकारों के बारे में गहरी जानकारी रखते
हों। जो हमारी हैसियत को समझते हों। ताकि हमें वीज़ा आसानी से मिल जाया करे।
क्योंकि अपनी जमीन पर आने को तो मन हमेशा ही तड़फता रहता है। संपर्कः उस्ताद रईस
खां
ग्राउंड
फ्लोर-जी-2,सलामी गार्डन,प्लॉट नंबर-50,
ब्लॉक-3,बीएमसीएचएस,बहादुराबाद,करांची
मोबाइलः0092333220675
उस्ताद रईस खॉं
शास्त्रीय संगीत के जितने गहरे फनकार हैं लाइट म्यूजिक में भी आप उतनी ही महारत
रखते हैं। सुप्रसिद्ध फिल्म म्यूजिक कंपोजर मदनमोहन आपके शागिर्दों में थे जिन्हें
तमाम यादगार धुनों से इन्होंने ही लैस किया था। पर कितने लोग जानते हैं कि रईस खॉं
एक पाएदार शायर भी हैं। लीजिए पेश हैं उनकी ग़ज़लों के चंद चुनिंदा शेर-
ख़त लिख रहा हूं
अहदे मुहब्बत को तोड़कर
काग़ज़ पे आंसुओं की
जगह छोड़-छोड़कर
तू फिक्रमंद क्यूं
है मेरे दिल को तोड़कर
मैं खुद ही जा रहा
हूं तेरा शहर छोड़कर
ये दास्ताने जीस्त
भी कितनी तबील है
पढ़ना पड़ी है मुझे
वरक मोड़-मोड़कर
कल रात लिखने बैठा
ग़ज़ल तेरे नाम से
अल्फाज़ सामने थे
खड़े हाथ जोड़कर।
एक दूसरी ग़ज़ल के
कुछ शेर देखें-
तुम्हारे शहर में
भटके हैं अजनबी की तरह
किसी ने बात न पूछी आदमी
की तरह
ये माहताब-सा कुछ है
या माहताब है ये
सितारे सोच में डूबे
हैं फलसफी की तरह
हमारे जख्म कहां तक
सिओगे चारागरो
बहार आते ही खिल
जाएंगे कली की तरह।
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