Search This Blog

Friday, January 13, 2012

विचार , विचारधारा और प्रतिबद्धता

पंडित सुरेश नीरवजी एवं  श्री अरविन्द पथिकजी - एक अद्भुत साक्षात्कार |  पंडितजी का  श्री पथिक के  प्रश्नों का उत्तर विचार , विचारधारा और प्रतिबद्धता के लिए जुडी बहस में बड़ी बारीकी से  देना उनके गहन अध्यन एवं चिंतन पर आधारित है और चिंतन में विचार की विशेष भूमिका है, विचारधारा और सृजन की प्रतिबद्धता बहुत दूर की चीजें हैं जो विचार को मील का पत्थर बनाती हैं या उसको नकारती   हैं, यह उसकी अपनी विचारधारा है, वह किस तरह का आंकलन करती है वह उसकी प्रतिबद्धता है जो विचार के समक्ष टिक नहीं सकती हैं  या ये कहिए वह कुछ नहीं है|   अपितु हम तीनों को नकार भी नहीं सकते हैं क्योंकि तीनों  एक   त्रिवेणी  का संगम  है , उसमें बिना गोता लगाए वैचारिक प्रतिबद्धता se विचारधारा नहीं बन सकती है जो विचार के लिए मौलिक प्रतिधिनित्व का सृजन करती है या यों कहिए कि एक   अहम् भूमिका निभाती है, परन्तु प्रत्यक्षरूप से  ऐसा लगता है कि वह कुछ नहीं है|  साक्षात्कार बहुत अच्छा लगा| पढ़कर बहुत ही आनंदानुभूति हुई, एक  सहज सरसता मिली | बधाई|

आदरणीय पंडितजी ने जो रेखांकित किया है , देखिए-

विचार बहती धारा है और विचारधारा वाद के गड्ढे में रुका पानी है। और जो रुक गया वह जीवंत नहीं हो सकता। हमारी प्रतिबद्धता विचार से हो या विचारधारा से इस प्रश्न के उत्तर में मैं यही कहना चाहूंगा कि प्रतिबद्धता भी एक तरह का जुड़ाव है,बंधन है,खूंटा है। फिर भी प्रतिबद्धता जरूरी है। मगर प्रतिबद्धता किसके साथ। यह प्रतिबद्धता होनी चाहिए विचार के साथ,मूल्यों के साथ। सृजन के लिए यही जरूरी है। मूल्यगत
प्रतिबद्धता एक व्यापक अनुभव संसार को सृजन में उतारती है। साहित्य को एकद्रष्टि देती है जबकि विचारधारा से प्रतिबद्धता एक विशेष दृष्टि से साहित्य को देखती है। सृष्टि से दृष्टि का विकास हो यह तो ठीक है मगरसृष्टि को देखने का पूर्वग्रह एक किस्म का बौद्धिक दीवालियापन है। मानसिक विकृति है। और अपने अनुभव संसार को बौना करने का भावुक हठ है। इसके अलावा

और कुछ नहीं।



 बधाई एवं  मेरे नमन



No comments: