लेखन
का संबंध जीवन से ही है।अब यदि बात लेखक के जीवन से जुडी है तो भी लेखन का
संबंद जीवन से रहेगा ही। वह जीने के लिये लिखेगा और लिखने के लिये जियेगा।वह
फौज की वर्दी में भी लिखता है और डॉक्टर की पोशाक में भी।वह प्रेमिका के साथ
भी बैठकर लिखता है और सीमा पर बने बंकर में भी।क्योंकि लेखन जीवन की ही
सुगंध है। हां यदि लेखन स्वेच्छा के बज़ाय बाज़ार के निर्देश में किया जाय
तो भी लेखक को ज़ीवन के इंतज़ाम मुहैया कराता ही है। इसमे बुरा भी क्या है?यदि वह श्रम करता है और उसे उसके श्रम का पारिश्रमिक मिल जाय तो इसमें अनुचित क्या है? लेखक को उसके श्रम का मूल्य मिलना ही चाहिये।मैं इसे सांस्कृतिक शिष्टाचार मानता हूं।
-पंडित सुरेश नीरव
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