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Thursday, January 19, 2012

बेंचता हूं पाव-भाजी पेस्ट्री पैटीज़











मित्रों कुछ वर्ष पूर्व मैने एक बेकरी पदार्थों की दुकान खोली वह भी पूरी शान के साथ।दुकान चलाने लायक टेंपरामेंट ना तब था ना अब है सो लुट-पिट कर बैठ गये ।उन दिनों लिखी गई एक कविता आज हाथ लग गई तो सोचा आप को ही सुना दूं,लीजिये झेलने के लिये तैयार हो जाइये------

बेंचता हूं पाव-भाजी     पेस्ट्री पैटीज़
ज़िंदगी अपनी हुई है बटर -बर्गर चीज़
मै नहीं मक्खन लगाता बेंचता हूं
कौन है जिसको नहीं मैं खैंचता हूं?
दोस्त-दुश्मन,गैर-अपने,उठते अक्सर खीझ
बेंचता हूं पाव-भाजी     पेस्ट्री पैटीज़
सुना था कुछ साल पहले ,बेचते थे 'अश्क'
फिर नहीं क्यों करूं मैं पेशे पे अपने रश्क
'स्टार' खुद को बेचने जाते हैं 'ओवरसीज'
बेंचता हूं पाव-भाजी     पेस्ट्री पैटीज़
मंच पर घूमा- फिरा ,देखा-सुना,जाना
चाहा खुद को बेंच दूं पर ,मन नहीं माना
चुटकुले उपहास करते ,रहता मुट्ठी मीज
बेंचता हूं पाव-भाजी     पेस्ट्री पैटीज़
शब्द से ही झूठ का चलता है कारबार
शब्द बनकर रह गये हैं झूठ का हथियार
सोंचिये क्यों अग्निधर्मा स्वर रहे हैं छीज
बेंचता हूं पाव-भाजी     पेस्ट्री पैटीज़
    --------------- अरविंद पथिक
arvind61972@gmail.com
9910416496
  

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