लेखकीय कृति का मूल्यांकन पर श्री अरविन्द कुमार के प्रश्नों का उत्तर आदरणीय पंडित सुरेश नीरवजी ने बड़े ही मार्मिक एवं दार्शनिक भाव से दिया है| पंडितजी श्री पथिक्जी को बताया है कि किसी कृति का मूल्य बाजार मूल्य पर उसके घटने या बढ़ने से नहीं आंका जा सकता है क्योंकि वह तो उसकी मांग है\ उसके अन्दर क्या है, यह बाजारी दायित्व कभी नहीं वहां तक पहुँच सकता है , किसी कृति का वह (बाजार का मूल्यांकन )तो केवल उस कृति के भावात्मक दायित्व में अवनमन मात्र है| किसी कृति का मूल्य तो उसके स्थायित्व और शाश्वतत्व निर्भर करता है | आदरणीय पंडितजी ने मूल्य का अर्थ बताते हुए कृति का मूल्यांकन का उत्तर बड़ा ही समुद्र मंथन करके श्री पथिकजी को बताया है| मैं आदरणीय पंडितजी और श्री पथिकजी को बहुत-बहुत बधाई देता हूँ | पंडितजी के शब्दों में --
यह बहस अलग है कि वह क्या लिखता है?बाज़ार का सत्य यह है कि वह बिकता कितना है?जितना बिकता है व्यवहार में वह उतना ही बडा है।यही उसका मूल्यांकन है।आदर्श की बातें दूसरी हैं ।जो हमारे जैसों के लिये उचित हैं जिनका कोई बाज़ार नहीं।
----हां।शायद आप मेरी बात सही समझ सके क्योंकि बाज़ार में तानसेन ही बैज़ू बाबरा बडा है।बैजू बाबरा बाज़ार में बिकने को तैयार नहीं।लिकिन जब हम बैजू बाबरा को महत्वपूर्ण मान रहे हैं तो मूल्यांकन का यह भी एक पहलू है कि जो बाज़ार के बाहर है और मूल्यांकन के शाश्वत मूल्य रखता है।यह श्रेष्ठ विचार है जो व्यवहार में बडी मुश्किल से ढलता है।पर जो मुश्किल से ढलता है वह बडी दूर तक चलता है।
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