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Tuesday, January 10, 2012

समीक्षायें भी लेखकीय कृति के मूल्य को बढाने या घटाने वाले अभियान ही हैं।










अरविंद पथिक--- नीरव जी आप कहते हैं कि डूबने के लिये भी ज़िंदगी चाहिये ऐसे में सहज ही प्रश्न उठता कि लेखन ज़िदगी के लिये है या ज़िदगी लेखन के लिये?

पं० सुरेश नीरव----पथिक जी आपके प्रश्न से यह स्पष्ट नही होता कि आप किस ज़िदगी या जीवन की बात कर रहे हैं यदि उस जीवन की बात कर रहे हैं जिसे हम सृष्टि कहत हैं तो जो कुछ भी संसार में है वह जन्म ले चुका है।इस समग्र जन्म प्रक्रिया का परिणाम ही जीवन है तो इस अर्थ मे लेखन का संबंध जीवन से ही है।अब यदि बात लेखक के जीवन से जुडी है तो भी लेखन का संबंद जीवन से रहेगा ही।वह जीने केलिये लिखेगा और लिखने के लिये जियेगा।वह फौज की वर्दी में भी लिखता है और डा० की पोशाक में भी।वह प्रेमिका के साथ भी बैठकर लिखता है और सीमा पर बने बंकर में भी।क्योंकि लेखन जीवन की ही सुगंध है।हां यदि लेखन स्वेच्छा के बज़ाय बाज़ार के निर्देश में किया जाय तो भी लेखक को ज़ीवन के  इंतज़ाम मुहैया कराता  ही है।इसमे बुरा भी क्या है?यदि वह श्रम करता है और उसे उसके श्रम का पारिश्रमिक मिल जाय तो इसमें अनुचित क्या हैलेखक को उसके श्रम का मूल्य मिलना ही चाहिये।मैं इसे सांस्कृतिक शिष्टाचार मानता हूं।

अरविंद पथिक---इसका अर्थ तो यह हुआ कि बाज़ार के साथ लेखन को जोडने में अनुचित कुछ भी नहीं?पर क्या बाज़ार ही लेखन का मूल्यांकन करे यह उचित है?

पं०सुरेश नीरव-------'मूल्यका अर्थ ही कीमत है।'कीमतका चलन बाज़ार से ही तय होता रहा है और होता रहेगा।हम जब मूल्यांकन की बात करते हैं तो इसका सीधा अर्थ यही होता है।कोई कृति या वस्तु यदि बाज़ार में है तो उसका मूल्य क्या होगासमीक्षायें भी लेखकीय  कृति के मूल्य को बढाने या घटाने वाले अभियान ही हैं।जोकि अब प्रायोजित भी होने लगे हैं।आज अगर किसी लेखक की पुस्तक लाखों में बिकती है तो वह बडा लेखक माना जाता है।अगर लेखक की रचनायें बडी पत्रिकाओं में छपती हैं,उसकी कृति को फिल्म और टी०वी० चैनल वाले तरज़ीह देते हैं तो वह बडा लेखक है।यह बहस अलग है कि वह क्या लिखता है?बाज़ार का सत्य यह है कि वह बिकता कितना है?जितना बिकता है व्यवहार में वह उतना ही बडा है।यही उसका मूल्यांकन है।आदर्श की बातें दूसरी हैं ।जो हमारे जैसों के लिये उचित हैं जिनका कोई बाज़ार नहीं।

अरविंद पथिक----- नीरव जी ,आपके उत्तर से क्या  यह ध्वनित हो रहा है कि मूल्यांकन की कमान बाज़ार के हाथों मे होना उत्कृष्टेखन की गारंटी नही हो सकता?

पं० सुरेश नीरव------हां।शायद आप मेरी बात सही समझ सके क्योंकि बाज़ार में तानसेन ही बैज़ू बाबरा बडा है।बैजू बाबरा बाज़ार में बिकने को तैयार नहीं।लिकिन जब हम बैजू बाबरा को महत्वपूर्ण मान रहे हैं तो मूल्यांकन का यह भी एक पहलू है कि जो बाज़ार के बाहर है और मूल्यांकन के शाश्वत मूल्य रखता है।यह श्रेष्ठ विचार है जो व्यवहार में बडी मुश्किल से ढलता है।पर जो मुश्किल से ढलता है वह बडी दूर तक चलता है।

अरविंद पथिक----लेखन के ज़मीनी प्रश्नों पर जो बातें आपने कही इन पर सामान्यतया चर्चा करने से लेखक विशेष कर हिंदी के लेखक आमतौर पर कन्नी काट जातें हैं ,पर आपने बडी साफगोई से लेखन और उसके मूल्यांकन पर अपने विचार रखे,आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
पं० सुरेश नीरव ---धन्यवाद के पात्र तो आप भी हैं पथिक जी जो इन सवालो से टकराने का अवसर दिया जहां तक हिंदी लेखन और लेखकों के कन्नी काटने की बात है इस पर फिर कभी विस्तृत चर्चा की जायेगी। 

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