ग़ज़ल-ग़ज़ल-ग़ज़ल-ग़ज़ल-ग़ज़ल-ग़ज़ल-ग़ज़ल-ग़ज़ल
एक बिलकुल ताज़ा ग़ज़ल. जिसका कि मतला अभी लिखा नहीं गया है। पेशेखिदमत है..
आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा....
हरेक जिस्म में
होता है सांस का जंगल
जिसका लगता है
पता खुद ही खिड़कियां होकर।
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रूह बेताब है
मुद्दत से नई सजधज को
लिबास तंग है
उतरेगा धज्जियां होकर
तमाम उम्र जो
चुपचाप रहा था मुझमें
चला है आज वो
सांसों से हिचकियां होकर
करोगे क़ैद जो
जल्वा जली मशालों का
रोज़ सड़कों पे
वो उतरेगा बिजलियां होकर
कैसी खुशबू-सी ये
होती है मां की बातों में
नाचते लफ्ज़ हैं
सीने में तितलियां होकर
हरेक जिस्म में
होता है सांस का जंगल
जिसका लगता है
पता खुद ही खिड़कियां होकर।
पंडित सुरेश नीरव
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