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Wednesday, January 4, 2012

पॉलीथिन के सुरक्षाकवच में दुबके कुएं


हास्य-व्यंग्य-
कुएं नेकी का डस्टबिन
पंडित सुरेश नीरव
गर्मी चेहरे पर पसीने का स्प्रे कर रही थी। मैं लाल कुएं से चलकर धौला कुंआ तक भटकता-भटकाता पहुंच चुका था मगर मजाल है कि बीस किलोमीटर के इस कंकरीट कानन में कहीं भी एक अदद कुएं की झलक भी देखने को मिली हो। कई दिनों बाद मैंने एक नेकी की थी और उसे डालने के लिए शिद्दत से कुआं ठूंठ रहा था। बेदाग नेता की तरह। अगर मुझे ज़रा-सा भी मालुम होता कि कुआं खोजने में इतनी परेशानी होगी तो मैं भूले से भी नेकी करने की भूल नहीं करता। एक तो नेकी करने का गैरमुनाफेवाला काम करो और फिर कुंआं ढूंढने का दुर्दांत परिश्रम भी करो। वो भी क्या ज़माना था जब पंचायत स्तर पर 8-10 कुएं हुआ करते थे। तरह-तरह के कुंए.। ठाकुर के कुंए। बामन के कुंए। निजी कुंए। पंचायती कुंए। जहां दिन-रात गांव की उर्वशियां और मेनकाएं चौबीस घंटे अबाध गति से पानी ही भरा करती थीं। और जिनकी अटूट प्रेरणा से आदमी भी नेकी कर कुएं में डालतेडालते टूट जाता था मगर उफ नहीं करता था। क्या बला की तासीर हुआ करती थी इनकी कि घर से केवड़े और खस का शर्बत पीकर निकले मुसाफिर को फट्ट से प्यास लग आती थी। और झट्ट से वो पनघट की और लपक जाता था। पनिहारिनों को देखकर रीढ़ की हड्डी ऑटोमेटिकली 60 डिग्री का कोण बनाते हुए झुक जाती थी और हुड़ुकचुल्लू हाथ सुपर फुर्ती के साथ अपने आप चुल्लू बन जाते थे। कुआं-कन्याएं बड़ी अदा से झुककर झुके हुए राहगीर के चुल्लू में पानी की धार छोड़तीं हुई उसे पानी पिलातीं। सारा कलसा खाली हो जाता। गोरी के मुख से पल्लू हट जाता मगर राहगीर का चुल्लू चेहरे से नहीं हटता। प्यासे की प्यास से ज्यादा प्यासा तो खुद पानी हो जाता इन सुंदरियों को देखकर। इन कूप-कन्याओं को अच्छे-अच्छों को पानी पिला देने की महारत हासिल होती थी। अच्छे-अच्छे सूरमाओं की जवानी चुल्लूभर पानी में डूबकर खुदकशी करने को ललचाने लगती थी। इस तरह कुंए उस वक्त जरूरत के साथसाथ मनोरंजन का सरस केन्द्र भी हुआ करते थे। कभी-कभी नान स्टॉप मनोरंजन प्रदायक कुओं के बारे में यह पब्लिसिटी हो जाया करती थी कि उस कुएं में तो भांग पड़ गई है। आदमी-तो-आदमी कुएं के मेंढ़क भी बिगबॉस के घर के किरदारों-सा आचरण करने लगते थे। इन शोख कुओं की  बस्ती में एक-आध बिंदास बांदी कुंइयां भी हुआ करती थीं। बड़ी सजधज के साथ शोहदे टाइप प्यासेजन इन शोख-कमसिन कुंइयों के पास जाकर आहें भरते- जी चाहता है कि प्यास लगे। और इन कुइयों का पानी लजाकर थोड़ी देर के लिए नमकीन होजाता और पुनः यथा स्थिति में आकर मीठा हो जाता। ये वो दौर था जब लोगों को दो ही शौक हुआ करते थे एक कुएं खुदवाने का और दूसरा उन कुंओ में टाइम-टाइम पर नेकी डालते रहने का। नेकी डालते भी ऐसी बारीकी से थे कि  खोजी पत्रकारों के दल कुओं में बांस डाल-डालकर भी उस नेकी की झलक तक नहीं ले पाते थे। अब जब कुएं नहीं रहे तो बोरवैल में नेकी की जगह प्रिंस डालने का रिवाज आ गया है। रस्म भी पूरी हो जाती है और पब्लिसिटी भी खूब हो जाती है। कुओं की फितरत का व्याकरण भी बड़ा शास्त्रीय है। जान देने और जान बचाने दोनों के लिए ही कुआं अचूक जरिया रहा है। खुदकुशी के लिए जहां लोगों ने इसकी निशुल्क सेवाएं प्राप्त की हैं वहीं जान बचाने के लिए भी जलियांवाला बाग में लोगों ने कुओं की ही सर्वोत्तम सेवाएं प्राप्त की थीं। साहसी महिलाओं ने जान और आन दोनों को बचाने के लिए भी कुओं का ही टू-इन-वन सहारा लिया है। और परंपराप्रेमी महिलाएं अभी भी इसे ही पसंद करती हैं। कुओं पर भारतीय समाज को जितना भरोसा रहा है उतना तो वो आज के किसी भी मंत्री पर भी नहीं करते। आज भी स्त्रियां कुआं पूजन करके अपना आभार कुओं के प्रति जता रही हैं। आजादी के बाद देश से कुएं और ईमानदारी समान अनुपात में गायब हुए हैं। पानी के भारत में अब जितने कुएं बचे है खाड़ी देशों में तो उससे कहीं ज्यादा पेट्रोल के कुएं आबाद हैं। जो कुएं  असावधानीवश बचे रह भी गए हैं उनकी हालत भी स्वतंत्रता सेनानियों की तरह उपेक्षित और जीर्ण-शीर्ण है। अन्ना के लोकपाल बिल की तरह गैरजरूरी। आरक्षण से बाहर किसी जाति के नवयुवक की तरह  घुप्प अंधकारमय। जो कुएं कभी लोगों की प्यास बुझाया करते थे आज वो खुद प्यासे दम तोड़कर कचरादान बन चुके हैं। अब सरकारी कूप मंडूक फाइलों में कुआं खोदते है और नेकी कुएं में नहीं अपनी जेबों में डालकर कुओं के प्रति अपना अहोभाव जताते रहते हैं। मध्यवर्ग के लोग अपनी जरूरतों के मुताबिक रोज़ कुआं खोदते हैं और रोज़ पानी पी-पीकर अपनी किस्मत को कोसते हैं। कुएं और आम आदमी की किस्मत की इबारत अब एक-सी हो गई है। मिनरल वाटर के आतंकी हमलों के आगे सरकारी व्यवस्था की तरह निसहाय और निरीह कुओं को अब नेकी का डस्टबिन न बनाकर उसे पॉलीथिन के सुरक्षाकवच में दुबकाये जाने की सामूहिक कोशिशें मुस्तैदी से जारी हैं। हम उसे लावारिस और असुरक्षित हालत में भला कैसे छोड़ सकते हैं। आखिर हमारा भी तो कोई फर्ज बनता है।
आई-204,गोविंद पुरम,ग़ाज़ियाबाद
मोबाइल-09810243966

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